SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 462
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड - ४, गाथा - १ समाप्त ४४३ अस्य च सूत्रसमूहस्य व्याख्या गन्धहस्तिप्रभृतिभिर्विहितेति न प्रदर्श्यते । परोक्षप्रमाणता च मतेर्मुख्यवृत्त्याऽत्र प्रदर्शिता । संव्यवहारतस्तु विशदरूपस्य मतिभेदस्य प्रत्यक्षताऽभ्युपगतैव । ।१ ।। [ दर्शन - ज्ञानालम्बनयोः सामान्यविशेषाकारवत्त्वम् ] सामान्यविशेषात्मके च प्रमाणप्रमेयरूपे वस्तुतत्त्वे व्यवस्थिते द्रव्यास्तिकस्याऽऽ लोचनमात्रं विशेषाकारत्यागि दर्शनं यत् तत् सत्यम् इतरस्य तु विशेषाकारं सामान्याकाररहितं यद् ज्ञानं तदेव पारमार्थिकमभिप्रेतम् 5 'प्रत्येकमेषोऽर्थपर्यायः' इति वचनात् । प्रमाणं तु 'द्रव्यपर्यायौ दर्शन - ज्ञानस्वरूपी अन्योन्याऽविनिर्भागवर्त्तिनौ' इति दर्शयन्नाह - अतः हम यहाँ विस्तार नहीं करते । श्रुतज्ञान तो परोक्ष है ही, चाक्षुष आदि मतिज्ञान को भी परोक्ष प्रमाण कहा है वह मुख्यवृत्ति से । (यानी अर्थ और इन्द्रियादि साधनावलम्बि है इसलिये । स्वयंभू आत्मा से प्रकट होते हैं इस लिये अवधि आदि प्रत्यक्ष हैं ।) हाँ, लौकिक व्यवहार से स्पष्टस्वरूप 10 होने से मति के चाक्षुषादिभेदों को प्रत्यक्षविभाग में शामिल करने में भी कोई अस्वीकृति नहीं है, स्वीकृति है । द्वितीयकाण्ड प्रथम गाथा व्याख्यान समाप्त [ सामान्याकार दर्शन विशेषाकार ज्ञान ] प्रमाण- प्रमेयरूप वस्तुतत्त्व सामान्य-विशेषोभयात्मक है यह सिद्ध हो गया। तब द्वि० काण्ड की 15 पहली कारिका में जो दर्शन- ज्ञान के बारे में द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नय के उपलक्ष में कहा था 'एसो पाडेक्कं अत्थपज्जाओ' वहाँ व्याख्याकारने उस के विवरण में यह कहा था कि द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक प्रत्येक नय का यह अर्थपर्याय यानी अपने अपने ( सामान्य - विशेषरूप) अर्थ का ग्राहकत्व है । उसी का विशेष विवरण दूसरी गाथा से करना है । उस में, व्याख्याकार अवतरणिका में पहले स्पष्टीकरण करते हैं द्रव्यार्थिकनय के अनुसार वह बोध दर्शनात्मक और सत्य है जो विशेषाकार की उपेक्षा 20 कर के सिर्फ 'किंचित्' रूप से आलोचनस्वरूप ही होता है। पर्यायार्थिक नय के अनुसार पारमार्थिक ज्ञान वह है जो सामान्याकार की उपेक्षा कर के विशेषाकार स्पर्शी होता है। नय बोध अंशग्राही होता है, इसलिये ये दोनों नय सामान्य और विशेष एक एक अंश के ग्राहक होते हैं। प्रमाण पूर्ण वस्तु ग्राही होता है अतः वह अन्योन्यअपृथग्वर्त्ति द्रव्य-पर्याय उभयस्वरूप ग्राहि दर्शन - ज्ञान उभयरूप होता है। इसी तथ्य का निर्देश दूसरी कारिका में किया गया है - - Jain Educationa International For Personal and Private Use Only - 25 www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy