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________________ ४३८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ कार्यधर्मानुवृत्तेरेवाऽयोगात्। एकदेशेन कार्यधर्मानुवृत्तावनेकान्तवादप्रसक्तेः। सर्वात्मना तदनुवृत्तौ कार्यस्य कारणरूपतापत्तेः, कार्यकारणभावाभावप्रसङ्गात् इत्युक्तत्वात्। किञ्च, सर्वदा सर्वत्राग्निजन्यो धूम इति न प्रत्यक्षमनुपलम्भसहायमपीयतो व्यापारान् कर्तुं समर्थम् सन्निहितविषयबलोत्पत्तेरविचारकत्वाच्च। तत्पृष्ठभाविनोऽपि विकल्पस्य नात्रार्थे सामर्थ्यम् तदर्थविषयतया 5 तस्य गृहीतग्राहित्वेनाऽप्रामाण्याभ्युपगमात् । अनुमानमपि नैवं प्रतिबन्धग्राहकम् अनवस्थेतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । न च भवत्पक्षेप्यविनाभावित्वग्रहणे हेतोरयं समानो दोषः; यतोऽन्यथानुपपन्नकलक्षणो हेतुरित्यस्माकं हेतुलक्षणम् । अन्यथानुपपन्नत्वं च तादात्म्य-तदुत्पत्त्योः पूर्ववत्-शेषवत्-सामान्यतोदृष्टमित्येषां च तथैकार्थसमवायिसंयोगि-समवायीत्यादीनां च तथा वीतमवीतं वीतावीतं चेत्यादीनां च सर्वहेतूनां व्यापकम्, सति गमकत्वे सर्वेषामप्येषां साध्याऽविनाभावित्वात्, तद्विकलानां च गमकत्वाऽयोगात्। 10 बीच कारण-कार्यभाव का निश्चय हो जाता है, इस निश्चय के बल से ‘सर्व काल में अनग्निव्यावृत्त अग्नि से अधूमव्यावृत्त धूम उत्पन्न होता है' ऐसा निश्चय अनायास हो जाता है। यदि इस तथ्य का स्वीकार नहीं करेंगे तो अन्य काल में कभी भी अग्नि से धूम की उत्पत्ति नहीं होगी, क्योंकि अकारण (यानी कारणाभास अग्नि) से कभी भी कार्य (धूम) की उत्पत्ति शक्य नहीं है, शक्य मानें तो कार्यमात्र निर्हेतुक प्रसक्त होगा। कहा है कि (प्र०वा०३-३४) 'कार्य धर्म (कारणसदृशधर्म) के अनुसरण 15 के निमित्त धूम अग्नि का कार्य (सिद्ध होता) है।' उत्तर :- यह सब गलत है। बौद्ध मत में कार्यधर्म की अनुवृत्ति ही अशक्य है। कार्य के सभी धर्मों (कारणसदृशधर्मों) का अनुवर्त्तन शक्य नहीं है। यदि एक देश (कपूरादि के गन्धादि धर्मों) से अनुवर्तन की बात करें तो यह अनेकान्तवाद में ही सम्भव है। सर्वसंपूर्णरूप से कार्यधर्म का अनुकरण मानेंगे तो कार्य कारणरूप ही बन कर रहेगा, फलतः कार्यकारणभाव का ही लोपप्रसंग आयेगा यह 20 पहले कह दिया है। [ अविनाभावग्रहण में अनुपलम्भसहकृत प्रत्यक्ष - असमर्थ ] दूसरी बात :- प्रत्यक्ष को अनुपलम्भ का कितना भी सहकार मिले, वह इतना बड़ा काम तो कभी नहीं कर सकता कि सर्वकाल-सर्वदेश में धूम अग्निजन्य होता है ऐसा भाँप सके। कारण : एक तो वह संनिकृष्ट विषय के बल से ही उत्पन्न हो सकता है, दूसरा, उस में विचार को अवकाश 25 नहीं है। प्रत्यक्ष के बाद उत्पन्न होनेवाला विकल्प भी इतने बड़े काम में सक्षम नहीं है क्योंकि एक तो वह प्रत्यक्ष के विषय को ही ग्रहण करता है। दूसरा, गृहीतग्राही होने से प्रमाणरूप में स्वीकृत नहीं है। अनुमान भी इतना बड़ा काम करने में अक्षम है। यानी वह प्रतिबन्धग्राहक नहीं है क्योंकि उस अनुमान के लिये प्रतिबन्धग्रहण कौन करेगा ? यदि उस के लिये नये नये अनुमान की कल्पना करेंगे तो अनवस्था दोष होगा। यदि दूसरा अनुमान पहले अनुमान के प्रतिबन्ध को, और पहला 30 दूसरे अनुमान के प्रतिबन्ध को ग्रहण करने का कहेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष लगेगा। शंका :- आप के मत में भी हेतु में अविनाभावग्रहण में अनवस्था अन्योन्याश्रय दोष समानरूप से लगेगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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