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________________ खण्ड-४, गाथा-१ ४३३ स केवलो न संभवतीति न तावन्मात्रस्याऽविनाभावित्वमिति । यतो धर्ममात्रवचनेऽपि साधारणस्यैवाऽविनाभावित्वम् यथा कृतकत्वमनित्यत्वमन्तरेणानुपपद्यमानं कृतकत्ववत्स्वेव भावेषु व्यवतिष्ठते। न ह्यन्यत्र तत्कृतकत्वं नाप्यविनाभावीति कृतकत्वस्याविनाभावित्वमाक्षिप्तधर्मिस्वरूपमेवेति सामर्थ्यसिद्धम्। तेन नावश्यं तत्सत्त्वं वचनेन विधातव्यम् धर्मोपरक्तधर्मिणि पृथक्पक्षधर्मत्ववचनमन्तरेणाप्यन्यथानुपपन्नत्वं कृतकस्यार्थस्य स्वरूपं जानानस्तदुपलभमान एव तदविनाभाविनमपरं स्वभावं झगित्यवगच्छति। यतो नानेन पूर्वमन्यथानुपपत्तिरूप- 5 निश्चयसमयेऽन्यत्र व्यवस्थितो धूमोऽन्यत्र व्यवस्थितेन वह्निना विनाऽनुपपन्न इत्यविनाभावः प्रतीतः । नापि तयोस्तथाविधः प्रतिबन्धः । न च प्रदेशव्यवस्थितं धूममुपलभमानोऽवश्यंतया 'यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्राऽग्निः' इति 'तथा चेह धूमः' इति परामृश्य ‘अग्निमान्' इति प्रत्येति किन्तु परिज्ञाताऽविनाभावो 'धूमदर्शनानन्तरं प्रदेशेऽग्निरत्र' इति प्राक्तनानुभवदाढात् स्मरति 'असत्यत्र वह्नौ धूम एव न स्यात्' इति लिंगरूपानुस्मरणं प्रकृतस्मरणस्य तथाभावमन्तरेणाभावप्रदर्शनार्थम् । 10 ___ उत्तर :- तो क्या यह विवादास्पद धर्मी नपुंसक (अविनाभावशून्य) लिंग के साथ शादी कर के साध्यसिद्धि रूप पुत्र की कामना रखता है ? देखिये, अन्य स्थानों में अविनाभाव है और विवादास्पद धर्मी में वह नहीं है तो ऐसा लिंग अविनाभावयुक्त है ऐसा कैसे कहा जा सकेगा ? गहराई से सोचो - जब अकेले धर्म का हेतुतया निर्देश किया जाता है तब भी अकेला धर्म हेतु बना रहे ऐसा संभव नहीं रहता यानी उस में अकेले में अविनाभावित्व नहीं रहता। कारण - धर्ममात्र व पर भी आधारयुक्त धर्म में ही अविनाभाव रहता है। उदा० अनित्यत्व के विना अनुपपद्यमान कृतकत्व निराधार नहीं होता किन्तु कृतकत्वसहित भावोंमें ही स्थान जमाता है। अन्य स्थानों में न तो कृतकत्व रहेगा न तो उस में अविनाभावित्व। अतः कृतकत्व के अविनाभावित्व से धर्मिस्वरूप का विना बोले निर्देश प्राप्त होता है यह सामर्थ्यसिद्ध है। अतः धर्मी का (पक्षधर्मत्व का) सत्त्वनिर्देश शब्दशः करने की जरूर ही नहीं रहती। धर्माश्रय धर्मि में पृथक् पक्षधर्मत्व निर्देश किये विना भी जब श्रोता कृतक 20 अर्थ का कृतकत्व स्वरूप जाननेवाला और कृतकत्व की पहेचान करनेवाला है तब कृतकत्व के अविनाभावि अनित्यत्व स्वभाव को एक झटके से समझ लेता है। इस पुरुषने पहले कभी अन्यथाअनुपपत्ति निश्चय काल में ऐसा अनुभव नहीं किया कि 'एक स्थान में (महानस में) रहा धूम, अन्य स्थान (गोष्ठादि) में रहे हुए अग्नि के विना अनुपपन्न है..... ऐसा अविनाभाव है।' वास्तव में महानसनिष्ठ धूम का गोष्ठादिनिष्ठ अग्नि के साथ अविनाभाव संभव भी नहीं है। तथा किसी प्रदेश में धूम को देख कर 25 'जहाँ जहाँ धूम वहाँ वह्नि, यहाँ धूम है' ऐसा व्याप्तिज्ञान और परामर्श कर के यह प्रदेश अग्निमान है ऐसा अनुभव कभी नहीं करता, किन्तु एक बार वह्नि का धूम में अविनाभाव जान लिया, बाद में कहीं भी धूम को देखा तो ‘इस प्रदेश में अग्नि है' ऐसे पूर्वकालीन अनुभव की दृढता के प्रभाव से याद करता है - अग्नि के विरह में धूम रह नहीं सकता। इस रीति से हेतु के अविनाभावित्वरूप का पुनः स्मरण करता है। यह स्मरण भी ऐसा दिखाने के लिये होता है कि अग्निसाहचर्य के विना 30 धूम हो नहीं सकता। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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