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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ तदपि लक्षणत्वे प्रकल्प्यते। सत्यम् संभवति, किन्तु अविनाभावित्वेनैव हेतोः गमकत्वं सिद्धम् न किञ्चित्तल्लक्षणवचनेन । तथाहि- यद्रूपानुवादेन हेतोः स्वरूपं प्लक्ष्यते तदेव लक्षणत्वेनानुवदितव्यमित्यविनाभावित्वरूपानुवादमात्रेण हेतुलक्षणस्य परिसमाप्तेर्न पक्षधर्मत्वादि विधेयमनुवदितव्यं लक्षणत्वेन। न
च तत् तत्र संभवतीति लक्षणत्वेन वाच्यम्, तथाभ्युपगमे अबाधितविषयत्वमपि तादृग्विधे हेतौ संभवतीति 5 लक्षणान्तरत्वेन वचनीयं स्यात् । अथाविनाभावित्वं सदपि पक्षधर्मत्वाद्यभावेऽगमकम्। न, व्याहतत्वात्।
तथाहि- अविनाभावित्वं स्वसाध्येन विना तस्याऽसंभव उच्यते, अगमकत्वं तु विनापि साध्यं संभवस्तस्यैवेति कथं नान्योन्यविरुद्धयोाहतिः ? _____ अथ धर्मिणोऽन्यत्राविनाभावित्वं तस्य, न पुनर्विवादाधिकरणे धर्मिणि- इति न पक्षधर्मत्वाद्यभावे
तस्य गमकत्वम्। तत् किमयं तपस्वी विवादाधिकरणो धर्मी शण्ढमुद्वाह्य पुत्रं मृग्यते ? तथाहि- अन्यत्र । 10 तदविनाभावित्वम् विवादाधिकरणे तु तन्नास्तीति कथमन्यस्तद्वानुच्यते ? न च धर्मः केवलो यदा हेतुस्तदा
वास्तवस्वरूप से प्राप्त स्वसाध्यनिरूपक शक्ति छोडनेवाला नहीं है, चाहे आप पक्षधर्मतादि का निरूपण करो या न करो। किसी (निषेधात्मक) निरूपण के डर से. वस्त की शक्ति भाग जानेवाली नहीं। यदि कहें - ‘हेतु सच्चा हो तो उस में तीन लक्षण होते ही हैं अतः तीन रूपों को लक्षण के रूप
में मान्यता प्रदान की जाय।' – हाँ, तीनरूपों का संभव सच्चे हेतु में होता है, किन्तु जब अविनाभावित्वरूप 15 से ही हेतु में गमकता प्रसिद्ध हो जाती है तब तीनरूपों को लक्षणरूप में मान्यता प्रदान करना
कोई जरूरी नहीं है। देखिये- यह नियम है कि जिस रूप का उल्लेख करने से हेतु का स्वरूप लक्षित हो जाता है उसी रूप का लक्षण के रूप में अभिषेक होना चाहिये। इस नियम के बल से फलित होता है कि अविनाभावित्वरूप का उल्लेख कर देने से हेतु का लक्षण पर्याप्त बन जाता है, अतः
पक्षधर्मत्वादि रूपों का लक्षण के रूप में विधान या अनुवाद निरर्थक है। यदि कहें कि - 'वे तीन 20 रूप हेतु में लक्षण के रूप में घटते हैं अतः वैसा कहना चाहिये' - ऐसा मान लिया जाय तब
तो सच्चे अविनाभावित्वयुक्त हेतु में अबाधितविषयता भी घटती है तो फिर उस को भी एक पृथक लक्षण के रूप में मान्यता प्रदान करनी पडेगी। (बौद्ध उस को नहीं मानता, नैयायिक ही मानता है।)
शंका :- हेतु में अविनाभावित्व रहता है किन्तु सहकारि पक्षधर्मत्वादि के विना अकेला वह साध्यबोधक नहीं होता। 25 उत्तर :- नहीं, आप का कथन व्याघातग्रस्त है। देखिये - अविनाभावित्व का मतलब है अपने
साध्य के विना हेतु का असंभव । अगमकत्व का मतलब है अपने साध्य के विना हेतु का सम्भव । तो सोचिये के अविनाभावित्व है तो अगमकत्व (जो कि उस से विरुद्ध है) हेतु में कैसे रहेगा ? परस्पर विरुद्ध होने पर व्याघात क्यों नहीं होगा ? ।
[विवादास्पद धर्मी में पक्षधर्मत्व की उपयोगिता का निरसन ] 30 शंका :- धर्मी पक्ष को छोड कर अन्य स्थान में भले ही साध्य का अविनाभावित्व हो, किन्तु विवादास्पद स्थान धर्मी (पक्ष) में तो वह निश्चित नहीं है अतः पक्षधर्मत्वादि के विना लिंग साध्य का गमक नहीं हो सकेगा।
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