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________________ 15 ४२४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ परप्रकल्पितानां यथालक्षणं प्रत्यक्षानुमानयोरन्तर्भावो निराकरणं वा विधेयम् । तदेवं शब्दादीनां केषाञ्चित् प्रामाण्यमेव न सम्भवति, अपरेषां त्वनयोरन्तर्भावो इत्यालोच्य न्यायविदोक्तम्- 'प्रमाणस्य सतोऽत्रैवान्तर्भावात् द्वे एव प्रमाणे ( ) इति। [ सैद्धान्तिकजैनमतेन त्रिलक्षणहेतुपरीक्षा ] अत्र प्रतिविधीयते – यत् तावत् पक्षधर्मत्वादिविलक्षणयोगिनो हेतोः साध्यप्रतिपत्तिरनुमानमभिहितम् तत्र विलक्षणस्य हेतोरविनाभावित्वं नावश्यंभावि, तत्पुत्रादेस्त्रलक्षण्येऽपि गमकत्वाऽदर्शनात्। अथ यत्राऽविनाभावित्वं तत्र त्रैलक्षण्यमवश्यंभावि-इति हेतोः तल्लक्षणमुच्यते- असदेतत्, 'सर्वमनेकान्तात्मकं क्षणिकं वा सत्त्वात्' इति साधयतः क्वचिदन्वयाभावेऽपि सत्त्वस्यानेकान्तात्मकत्वेन क्षणिकत्वेन वा विनाऽनुपपत्त्या गमकत्वदर्शनात्। तथा, ‘परिणामी ध्वनिः क्षणिको वा श्रावणत्वात्' इत्यत्रापि न 10 क्वचिदन्वयसद्भावः। न चानित्यत्वमन्तरेण श्रावणत्वं संभवति नित्यस्य श्रवणज्ञानजनकत्वाऽसंभवात् । अथवा यथासम्भव प्रत्यक्ष या अनुमान में अन्तर्भाव स्वयं कर लेना चाहिये। निष्कर्ष :- शब्दादि किसी में भी प्रामाण्य संगत नहीं होता, जो प्रमाणभूत हैं उन का अन्तर्भाव प्रत्यक्ष या अनुमान में शक्य है - यही सोच कर न्यायवेदी (धर्मकीर्त्ति) ने कहा है - 'प्रमाण हैं तो इन में ही अन्तर्भूत होने से, प्रमाण दो ही हैं।' ( ) [ सैद्धान्तिक जैनमतानुसार त्रिलक्षणहेतुपरीक्षा ] अब जैनमत की ओर से बौद्धमत की समीक्षा की जाती है – अनुमान की व्याख्या में जो कहा कि पक्षधर्मत्वादि तीन लक्षणयुक्त हेतु से साध्य का बोध अनुमान है - यहाँ जैन कहते हैं कि तीन लक्षण युक्त हेतु साध्य का अवश्यमेव अविनाभावि हो ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि वह श्याम है क्योंकि उस का (मित्रा पक्षिणी का) बच्चा है' यहाँ तत्पुत्रत्व हेतु में तीनों लक्षण के होने 20 पर भी साध्यबोधकत्व नहीं दिखता है (क्योंकि हेतु सोपाधिक है)। शंका :- जहाँ अविनाभावित्व हेतु में होता है वहाँ तीन लक्षण अवश्य होते हैं। इस लिये वे ‘हेतु के लक्षण' कहे जाते हैं। उत्तर :- गलत बात है। ‘सब कुछ अनेकान्त(= परस्परविरुद्धभासि अनेकधर्मात्मक)मय है' अथवा बौद्धमत से ‘सब कुछ क्षणिक है' क्योंकि (दोनों प्रतिज्ञा में) सत् है - इस साध्य की सिद्धि करते 25 समय कहीं भी अन्वय (यानी उभयसहचारवाला दृष्टान्त) नहीं मिलेगा क्योंकि यहाँ सब कुछ पक्षान्तर्गत है। फिर भी जैनमत में अनेकान्तात्मकत्व अथवा बौद्धमत में क्षणिकत्व के विना सत्त्व हेतु की सत्ता अनुपपन्न (युक्तिअसंगत) होने के कारण यहाँ सत्त्व हेतु में अन्वय के विना भी साध्यबोधकत्व मान्य रहता है। तथा, ध्वनि परिणामी है (जैन मत में) अथवा क्षणिक है (बौद्ध-नैयायिक मत में) क्योंकि श्रावण है - इस प्रयोग में भी अन्वय कहीं भी नहीं मिलता। श्रावणत्व (श्रावणप्रत्यक्षविषयत्व) ध्वनि 30 को छोडकर अन्यत्र कहीं न होने से अन्वयदृष्टान्त असंभव है। फिर भी श्रावणत्व साध्यबोधक होता है क्योंकि अनित्यत्व या परिणामित्व के विना श्रावणत्व की उपपत्ति अशक्य है। नित्य आकाशादि कभी भी श्रवणप्रत्यक्ष के जनक हो यह सम्भव नहीं है। नियम यही है कि जिस के रहते हुए ही जिस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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