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________________ ४२२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ धेयातिशयतया सहकार्यपेक्षाऽयोगात् सर्वदा तज्ज्ञानजननप्रसक्तेः तज्ज्ञानस्यैव सद्भावो भवेत् । सहकार्य धेयातिशयत्वे वाऽभावस्य भावरूपता भवेत् विशेषप्रतिलम्भलक्षणत्वाद् भावस्य। 'पर्युदासरूपस्य तस्याभ्युपगमाददोष'श्चेत् ? न, स्वसिद्धान्तविरोधात्। तथापि तथाभूतस्य तस्याऽभ्युपगमे प्रतिषेध्यविविक्त प्रदेशादिरूपतैव तस्याभ्युपगता भवेत् । प्रदेशादिश्च प्रथमाक्षसंनिपातजाध्यक्षप्रतिपन्न एवेति गृहीतग्राहितया 5 कथं तदनन्तरभाविनः स्वतन्त्रस्याध्यक्षान्तरस्य पृथक् प्रामाण्यम् अभावविषयत्वं वा भवेत् ? तस्मात् प्रसज्यप्रतिषेधरूपतैवाभावस्याभ्युपगन्तव्या। तस्य च तथाभूतस्य घटादिना सम्बन्धाभावात् 'घटस्याभावः' इति कथं घटविशेष्यता ? घटेनाऽविशेषणे च 'घटो नास्ति' इति न प्रतीतिर्भवेत् अपि तु ‘अभावोऽस्ति' इत्येवं प्रतिपत्तिः स्यात्, एवं च घटस्याऽनिवर्त्तनात् न किंचित् कृतं स्यात् । न चाभावः प्रदेशादेविशेषणं सम्भवति भावाभावयोः सम्बन्धाभावात। न तावत तादात्म्यलक्षण: 10 (तुच्छ होने से) किसी का जनक नहीं हो सकता। यदि उसे जनक माना जाय तो भी अभाव में किसी भी प्रकार के अतिशय का आधान शक्य न होने से उस को प्रत्यक्षजनन के लिये सहकारीयों की अपेक्षा रहेगी नहीं, इस स्थिति में वह अकेला सदा प्रत्यक्षज्ञान सन्तान उत्पन्न करता ही रहेगा तो अभाव के विना ही वैसा नित्य प्रत्यक्ष का सद्भाव क्यों न माना जाय ? यदि अभाव में सहकारी द्वारा अतिशय का आधान मानेंगे तो उस की अभाव रूपता का भंग हो कर भावात्मता प्रसक्त होगी। 15 भाव का ही यह लक्षण है कि वह नयी नयी विशेषता से उत्कर्ष को प्राप्त करे। (जैसे पहले सादा वस्त्र, फिर रंगीन वस्त्र, फिर चित्रयुक्त वस्त्र इत्यादि। यदि कहें कि - 'हम अभाव को प्रसज्यात्मक (सर्वथा निषेधात्मक) न मान कर पर्युदासस्वरूप मान लेंगे तो उस में अतिशयाधानादि भी होगा, फिर कोई पर्वोक्त दोष नहीं होगा।' - नहीं. अभाव को भावात्मक पर्यदासरूप मानने पर नैयायिक को अपने सिद्धान्त के साथ विरोध आयेगा। विरोध की उपेक्षा कर के भी वैसा अभाव मानेंगे तो 20 आखिर उस का स्वरूप कैसा होगा ? निषेध्य वस्तु से शून्य प्रदेश आदि (भूतलादि) रूप ही वह स्वीकारना पडेगा। तथा, वह प्रदेशादि तो पहले ही इन्द्रियसंनिकर्षजन्य प्रत्यक्ष से गृहीत रहेगा बाद में उसी का ‘अभावरूप से' ज्ञान होगा तो वह गृहीतग्राहि ज्ञान ही होगा, इस स्थिति में, प्रथम प्रत्यक्ष के बाद होनेवाले ‘अभावरूप से' द्वितीय स्वतन्त्र प्रत्यक्ष का पृथक् प्रामाण्य कैसे बचेगा ? अथवा तो भावग्राहि होने से उस में स्वतन्त्र अभावविषयत्व कैसे बचेगा ? 25 सारांश, अभाव को प्रसज्यप्रतिषेध स्वरूप ही मानना होगा। प्रसज्यनिषेधस्वरूप अभाव का भावात्मक घटादि के साथ किसी भी सम्बन्ध (तादात्म्य-तदुत्पत्ति) का मेल नहीं बैठेगा, तब ‘घट का अभाव' इस प्रकार घटविशेषित अभाव की विशेष्यता कैसे संगत होगी ? यदि कहें कि - घट से अविशेषित ही अभाव की प्रतीति मानेंगे - तो फिर 'घटो नास्ति' ऐसी घटविशेषित प्रतीति कैसे संगत होगी ? सिर्फ ‘अभावो अस्ति' इतनी ही प्रतीति साकार बनेगी। ऐसी प्रतीति से भी घट की निवृत्ति या निषेध 30 तो नहीं होगा, फिर 'अभाव है' इस प्रतीति ने क्या दीखाया ? - कुछ नहीं। [ अभाव में संयुक्तविशेषणता की अनुपपत्ति ] अभाव कभी किसी भूतलादि प्रदेश का विशेषण बन नहीं सकता। कारण, भाव का अभाव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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