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खण्ड-४, गाथा-१
४२१ तग्राहितया प्रत्यभिज्ञानस्य नायं दोषः, तस्याप्याद्यदर्शनेनोद्भूतस्वभावतयोपलभ्यमानस्य पुनरनुपलम्भपूर्वकमुपलब्धस्यानुपलम्भसमयेऽसतः - अन्यथा तदाप्युपलम्भप्रसङ्गात् – यत् प्रत्यभिज्ञानं तस्याऽसद्विषयतया भ्रान्तत्वानतिक्रमात् । न चावस्थाव्यतिरिक्तोऽवस्थाता सिद्धः उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य तस्यानुपलम्भात् । अनुपलभ्यस्वभावत्वे वा कुतस्तस्य प्रत्यभिज्ञानम् ? अव्यतिरिक्तश्चेदवस्थाविनाशे तस्यापि विनाशप्रसङ्गः, अविनाशे विरुद्धधर्मसंसर्गादवस्थाभ्यस्तस्य भेदः, अन्यत्रापि तस्य तन्मात्रनिबन्धनत्वात् । यथा च प्रत्यभिज्ञा 5 न प्रमाणं तथा प्रतिपादितमेव न पुनरुच्यते। तदेवमभावस्य प्रमेयाऽसम्भवात् संभवेऽपि तस्यार्थक्रियासामर्थ्यविकलतया विज्ञानजननाऽयोगाद् न तद्ग्राहकमभावाख्यं प्रमाणं संभवतीति स्थितम् ।। ___ एतेन संयुक्तविशेषणभावादभावग्राहीन्द्रियार्थसंनिकर्षजमध्यक्ष नैयायिकप्रकल्पितमपि व्युदस्तम् । तथाहितत् तावदनिमित्तं न भवति कादाचित्कत्वात् । नाभावनिमित्तं तस्याऽजनकत्वात्। जनकत्वेऽपि तस्यानानिरवकाश है' - तो यह भी गलत है क्योंकि प्रत्यभिज्ञा तो असदर्थग्राहि होने से गलत ही है। यदि 10 कहें कि – 'धर्मी (द्रव्यादि) सदा अवस्थित होने के कारण, उस की ग्राहक प्रत्यभिज्ञा भ्रान्त नहीं हो सकती' - तो यह फिर से कहते हैं कि प्रत्यभिज्ञा भ्रान्त ही होती है। स्पष्टता :- किसी एक द्रव्य का पहली बार दर्शन होने के काल में वह उद्भूतस्वभावरूप में उपलभ्यमान है, फिर वही बीच में अदृश्य हो गया तब वह असत् है - यदि तब वह सत् होता तो उपलंभ भी उस का होता – बीच में अनुपलम्भ होने से असत् और बाद में फिर से उपलब्ध बन जाय, तब जो आप प्रत्यभिज्ञा से एकत्व 15 सिद्ध करना चाहते हो वह कैसे होगा - क्योंकि मध्य काल में असत् होने पर, पूर्वापर काल में वस्तु एक हो नहीं सकती, अतः असदेकत्व की ग्राहक प्रत्यभिज्ञा भ्रान्तिक्षेत्र से बाहर नहीं है। मध्यवर्ती काल में जब कोई वास्तव अवस्था ही नहीं है तब उस काल में अवस्था से पृथक् अवस्थाता भी कैसे सिद्ध होगा ? यदि उस काल में वह सत् होगा तो उपलब्धिलक्षण योग्यता भी होगी, तब उस का उपलम्भ भी होना चाहिये, यदि उस काल में वह अनुपलभ्यस्वभाववाला है तो दूसरे अर्थ में वह असत् ही 20 है फिर उस की प्रत्यभिज्ञा कैसे हो सकती है ? यदि ‘अवस्थाता अवस्था से व्यतिरिक्त नहीं, अव्यतिरिक्त है' तब तो अवस्था के विनाश से अवस्थाता का विनाश प्रसक्त होगा, विनाश नहीं मानेंगे तो अवस्थाता में विनाश-अविनाश विरुद्धधर्मसंसर्ग प्रसक्त होने से अवस्थाता का अवस्थाभेद से भेद मानना पडेगा। जहाँ कहीं भी भेद होता है वह विरुद्धधर्मसंसर्गमूलक ही होता है।
प्रत्यभिज्ञा क्यों अप्रमाण है - यह पहले भी कहा जा चुका है अतः पुनरुच्चार नहीं करेंगे। सारांश, 25 अभाव प्रमेय के रूप में यानी वस्तरूप में संभवित नहीं है। (अतः प्रमेयत्व हेत असिद्ध है) कदाचित उस का वैसा सम्भव दीखाया जाय तो भी वह सर्व अर्थक्रियाशक्ति शून्य होने से स्वविषयक ज्ञान भी उत्पन्न नहीं कर पायेगा, अतः उस का ग्राहक अभावसंज्ञक प्रमाण भी सम्भवबाह्य है - यह निश्चित हुआ।
[नैयायिक कथित अभावप्रत्यक्षप्रक्रिया की समालोचना ] अभाव प्रमाणिक न होने से, नैयायिक कल्पित, 'संयुक्तविशेषणताप्रयुक्त, अभावग्राहक इन्द्रिय 30 संनिकर्षजन्यप्रत्यक्ष वाद' भी निरस्त हो जाता है। कैसे यह देखिये - वह प्रत्यक्ष निनिमित्त नहीं हो सकता क्योंकि वह नित्य नहीं. अल्पकालीन है। अभाव उस का निमित्त नहीं है क्योंकि अभाव
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