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________________ ४२० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ युक्तम् । यदपि क्षीरे दधि भवेदेवं' (३९९-१०) इत्याद्यभिधानम् तदप्यसंगतम्, यतो यदि नाम तत्प्रतिपादकं प्रमाणं न प्रवृत्तं तथापि कथं क्षीरादिषु दध्यादिसद्भावः तद्भावस्य कारणायत्तत्वात् ? तदसत्त्वग्राहकप्रमाणाभावाद्धि तदसद्व्यवहारनिवृत्तिमात्रकमेव स्यान्न तत्र दध्यादिसद्भावः। निरंशैकभावरूपत्वे च पदार्थस्य ‘स्वरूपपररूपाभ्यां नित्यम्'... (४००-३) इत्यादि सर्वं निरस्तम्। यच्च- 'यस्य यत्र यदोद्भूतिः...' (४००-४) इत्यादि, 'उद्भावाभिभवात्मत्वात्' (४००-१०) इति च - तत्र सदसदंशयोः सत्त्वेऽपि स्वत एव याद्भवाभिभवौ तदा अपरनिमित्तानपेक्षणात् सर्वदैव स्याताम् । न ह्यनिमित्तस्य कस्यचित् कदाचिदुद्भवोऽपरस्य चाभिभवो युक्तः । न चैकाभिभवनिमित्तोऽपरस्योद्भवः तदुद्भवनिमित्तो वा परस्याभिभवः इतरेतराश्रयप्रसक्तेः। अभिभवश्च स्वरूपखण्डनम् तच्च विनाशः, स चाऽहेतुकः इति नोद्भवनिमित्तोऽभिभवः। विनाशस्य च सर्वसामर्थ्यविकलतया कथमभिभवनिमित्तोऽपरस्योद्भवः ? 10 न चाभिभवावस्थायामनुपलब्धस्य तस्यैवोद्भवावस्थायामुपलम्भः सिद्धो येनोद्भवाभिभवव्यवस्था भवेत् । न च प्रत्यभिज्ञानादेकत्वसिद्धे यं दोष असदर्थग्राहितया तस्य भ्रान्तत्वात् । न च धर्मिणः सर्वदाऽवस्थानात् (३९९-२३) वह भी अयुक्त है। कारण :- यदि प्रागभावादिरूपता का साधक प्रमाण कोई लागु नहीं होगा तो क्षीरादि में दधि आदि का सद्भाव कैसे सिद्ध होगा जब कि दधिआदि भाव तो कारणाधीन हैं ? यदि वहाँ उस के असत्त्व का ग्राहक प्रमाण नहीं मिलेगा तो इतने मात्र से दधि आदि का सदभाव सिद्ध नहीं हो सकता. सिर्फ दधि आदि के असत्त्व के व्यवहार का ही निषेध शक्य होगा। पदार्थ जब एकमात्र निरंश स्वरूप ही है तब ‘स्वरूप-पररूप से नित्य सदसदात्मक...' इत्यादि जो पहले (४००-१८) श्लो॰वा० के श्लोकों से कहा है वह सब निरस्त हो जाता है। [ मीमांसकोक्त उद्भवाभिभवव्यवस्था का निरसन ] श्लो॰वा० के (अभाव०श्लो०१३-१४-१७, १९-२०) 'यस्य यत्र यदोद्भूतिः'... (४००-१८) श्लोक से 20 ले कर 'उद्भवाभिभवात्मत्वात्'... (४००-२९) श्लोक तक जो कुछ कहा है... वहाँ हम कहते हैं कि वस्तु में सदंश-असदंश के होते हुए भी उद्भव और अभिभव यदि स्वतः ही होंगे तो अन्यनिमित्त की अपेक्षा न होने के कारण वे दोनों सर्वदा होते ही रहेंगे। निमित्तनिरपेक्ष किसी का उद्भव एवं किसी का अभिभव अल्पकालीन नहीं हो सकता। ऐसा भी नहीं हो सकता कि एक का उद्भव अन्य के अभिभव-निमित्त से हो. अथवा एक का अभिभव अन्य के उदभव-निमित्त से हो, क्योंकि इस में अन्योन्याश्रय दोष लगेगा। 25 उद्भव के निमित्त से अभिभव का होना – यह भी असंगत है क्योंकि अभिभव का मतलब है अपनी सत्ता का भंग यानी विनाश, विनाश तो (बौद्ध मतानुसार) निरन्वय यानी निर्हेतुक होता है, फिर उद्भव कैसे अभिभव का हेतु बनेगा ? विनाश तो सर्वशक्तिशून्य होता है फिर विनाशात्मक अभिभव उद्भव का हेतु कैसे हो सकता है ? [असदर्थग्राही होने से प्रत्यभिज्ञा भ्रान्तिरूप ] 30 दूसरी बात यह है – अभिभवावस्था में जिस (द्रव्यादि) का उपलम्भ नहीं होता उसी का उद्भवावस्था में उपलम्भ कहाँ सिद्ध है जिस से कि उद्भव और अभिभव विषय में स्पष्ट निश्चय किया जा सके। यदि कहें कि - 'जिस का अभिभव अवस्था में अनुपलम्भ था उसी का उद्भवावस्था में उपलम्भ (यानी उस द्रव्यादि का एकीभाव) प्रत्यभिज्ञा से सिद्ध हो सकता है अतः उक्त दोष (स्पष्ट निश्चय का अभाव) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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