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________________ खण्ड-४, गाथा-१ ४१३ प्रमाणं न भवति। तथाहि- ‘पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते' इत्येद्वाक्यं स्वार्थप्रत्यायनद्वारेण रात्रिभोजनवाक्यान्तरमुपकल्पयतीत्यभ्युपगमः । न स्वार्थमेतत् प्रतिपादयति बहिरर्थे शब्दानां प्रतिबन्धाभावतः प्रामाण्यानुपपत्तेः। अथ कुतश्चित् प्रमाणाद् दिवाभोजनप्रतिषेधे भोजनकार्यस्य पीनताविशेषस्य प्रतिपत्तिर्न तर्हि श्रुतार्थापत्तिर्भवेत् कार्यतो रात्रिभोजनकारणप्रतिपत्तेरनुमानेऽन्तर्भावात् । वाक्याद् वाक्यान्तरप्रतिपत्तिस्त्वयुक्तैव तेन सह वाक्यस्य प्रतिबन्धाऽसम्भवात्। न हि दिवाभोजनप्रतिषेधवाक्यस्य रात्रिभोजनवाक्येन कश्चित् कार्य-कारण-भावादिकः 5 सम्बन्धः संभवतीत्युक्तम्। तद् नार्थापत्तिः प्रमाणान्तरम् । [ बौद्धप्रथिता अभावप्रमाणपरीक्षा ] अभावाख्यं तु प्रमाणं त्रिप्रकारम्- 'प्रमाणपञ्चकाभावः, तदन्यज् ज्ञानम्, आत्मा वा ज्ञानविनिर्मुक्तः' (३९७-१०) इत्युक्तम्। तत्राद्यस्य तावत् पक्षस्यासंभव एव। यतः प्रमाणपंचकाभावो निरुपाख्यत्वाद् न किञ्चित्, स कथं प्रमेयाभावं परिच्छिन्द्यात् परिच्छित्तेर्ज्ञानधर्मत्वात् ? अथ प्रमाणपंचकाभावो वस्त्वभावविषयज्ञानं 10 प्रमाणं जनयन्नुपचारादभावाख्यं प्रमाणमुच्यते। नन्वेवमपि प्रमाणपंचकाभावस्याऽवस्तुत्वाद् अभावज्ञानजनकत्वायोगात् प्रमाणत्वमनुपपन्नम्। तथाहि- वस्त्वेव कार्यमुत्पादयति नाऽवस्तु तस्य सकलसामर्थ्यविकलत्वात. सामथ्ये वा तस्य भावरूपताप्रसक्तेः। तथा चाभावाद भवति ज्ञानमिति 'भावाद न भर्वा श्रुत अर्थापत्ति भी अप्रमाण है। कैसे यह देखिये – 'पुष्ट देवदत्त दिन में नहीं खाता' यह वाक्य 'रात्री में खाता है' ऐसे वाक्यान्तर की कल्पना तब करा सकेगा जब पहले वह अपने अर्थ का प्रकाशन 15 करेगा। सही बात तो यह है वह अपने अर्थ का प्रकाशन ही नहीं कर सकता। कारण :- बाह्यार्थ के प्रति शब्दों का प्रतिबन्ध नहीं होने से उन का प्रामाण्य ही अघटित है। यद्यपि शब्द को छोड कर अन्य किसी प्रमाण से दिवसभोजन का निषेध ज्ञात होने पर भोजनकार्य पुष्टताविशेष का भान हो सकता है किन्तु यहाँ शब्दश्रवण को छोड देने से, इसे श्रुतार्थापत्ति नहीं कहा जा सकेगा। पुष्टताकार्य से यहाँ रात्रिभोजनरूप कारण की कल्पना का अन्तर्भाव अनुमान में हो जाता है। 20 ___ एक वाक्य से अन्य वाक्य का भान अयुक्त ही है क्योंकि वाक्य का वाक्य के साथ कोई प्रतिबन्ध नहीं होता। दिवसभोजननिषेधकवाक्य का रात्रिभोजनसूचक वाक्य के साथ कारण-कार्य भाव आदि कोई सम्बन्ध संभवित नहीं है यह तो पहले भी कहा जा चुका है। सारांश, अर्थापत्ति स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है। [ अभावप्रमाण के प्रथम प्रकार की समालोचना ] तीन प्रकारवाला जो अभावप्रमाण कहा गया (३९७-२)-१, प्रमाण-पंचकअभाव, २, निषेध्यान्य 25 वस्तु का ज्ञान, ३, ज्ञानअपरिणत आत्मा। उन में प्रथम प्रकार में पक्ष का असम्भव दोष है। कारण :- पाँच प्रमाणों का अभाव निरुपाख्य (= तुच्छ) पदार्थ है, कुछ वस्तुरूप नहीं है। ऐसा तुच्छ शशसींगतुल्य पदार्थ प्रमेय अभाव का परिच्छेद कर कैसे सकेगा जिस में तुच्छ होने के कारण कुछ सामर्थ्य ही नहीं है ? परिच्छेद तो ज्ञानधर्म होता है। यदि कहें कि – 'प्रमाणपंचक का अभाव तुच्छ है किन्तु वस्तु-अभावविषयक ज्ञान रूप प्रमाण का जनक है, चूंकि वह प्रमाण को उत्पन्न करता है अत एव 30 उसे उपचारतः अभावसंज्ञक प्रमाण कहा जाता है।' – तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि इस तरह भी प्रमाणत्व की उपपत्ति शक्य नहीं है क्योंकि प्रमाणपंचकाभाव स्वयं तो वस्तुरूप ही नहीं है, इस Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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