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________________ खण्ड-४, गाथा-१ च भवेदित्युक्तम् (३१७-१)। यदपि 'यत्संनिधाने यो दृष्टः'... (२२९-३) इत्यादि, तदप्ययुक्तम्, शब्दावच्छेदेन 'उदकम्' इति ज्ञानस्यानुपपत्तेः। न ह्युदकवत् शब्दोऽप्यत्र ज्ञाने विशेषणभूतो ग्राह्यतया प्रतिभाति तथाप्रतीतेरभावात् । शब्दविशिष्टोदकप्रतिभासाभ्युपगमेऽपि यदि शब्दस्मरणाद्यन्तरेण नार्थनिश्चयः तदाऽनवस्थादोषप्रतिपादनाद् न तद्ध्वनिस्मृतिर्भवेत्। अथ शब्दस्मरणाद्यन्तरेणाप्युदकादेनिश्चयस्तदा जैनमतानुप्रवेशाद् न दोषासक्ति: 5 काचित्। ___एवं संशयज्ञानव्यवच्छेदार्थं व्यवसायात्मक-पदोपादानमपि न कर्त्तव्यम् ‘इन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्न'-पदेके समावेश का प्रसङ्ग आ पडेगा। यह पहले कहा जा चुका है (३१९-११)। [अव्यपदेश्यपद द्वारा इष्टसिद्धि हो जाने से अव्यभिचारि-पद व्यर्थ ] यह जो पहले कहा था (२२९-२३) - 'जिस की उपस्थिति में जो (शब्दप्रयोग) बार बार देखा 10 गया है, उस के पुनः देखने से उस शब्द का स्मरण होता है'... इत्यादि - यह भी असंगत कहा था। [यहाँ पूर्वपक्षिने ऐसा कहा था कि - अव्यपदेश्यपद के द्वारा अव्यभिचारि पद चरितार्थ नहीं हो सकता। मरीचि जलज्ञान जलशब्द प्रेरित नहीं होता अत एव अव्यपदेश्य पद से मरीचिजलज्ञान का व्यवच्छेद शक्य न होने से अव्यभिचारि पद द्वारा उस का व्यवच्छेद करना सार्थक बनेगा। पूर्वपक्षी को मरीचिजलज्ञान शब्द प्रेरित नहीं मानना है इसी लिये यहाँ ऐसा नियम प्रदर्शित किया है कि 15 जिस के संनिधान में जिस का दर्शन होता है, उस को देखने पर तद्वाचक शब्द स्मृति में आता है। तरंगापन्न (मरीचि आदि) वस्तु मात्र के संनिधान में 'जल' शब्द का दर्शन नहीं होता (किन्तु जल के संनिधान में 'जल' शब्द का दर्शन होता है) इसी लिये मरीचिजलस्थल में मरीचि के संनिधान में 'जल' शब्द की स्मृति न होने से मरीचिजलीय ज्ञान शब्दव्यपदेश्य न बनने से, 'अव्यपदेश्य' विशेषण से उस का व्यवच्छेद जब शक्य नहीं है तब उस के व्यवच्छेद के लिये 'अव्यभिचारि' पद प्रयोग 20 अनिवार्य है। उस के निषेध के लिये ग्रन्थकर्ता कहते है -] ___ 'जलम्' ऐसा ज्ञान भी, न केवल मरीचिजलज्ञान, शब्दावच्छेदेन (यानी शब्दोल्लेखपूर्वक) नहीं होता। जल ज्ञान में 'जल' शब्द विशेषणविधया विषय के रूप में भासित नहीं होता, क्योंकि जल के ज्ञान की तरह वहाँ शब्द की प्रतीति नहीं होती। कदाचित् शब्दविशिष्ट जल का प्रतिभास मान लिया जाय तो भी यदि शब्दस्मरण के विना जब अर्थनिश्चय नहीं होगा तब उस के लिये अन्य शब्द का, उस 25 के भी लिये अन्य अन्य शब्द का ज्ञान आवश्यक बन जाने पर अनवस्था दोष गले पड़ने के कारण शब्द का स्मरण होना प्रमाणित नहीं होता। यदि शब्दस्मरण के विना ही जलादि का निश्चय स्वीकार करेंगे तो जलज्ञान जलशब्दप्रेरित न होने से अव्यपदेश्य पद से उस का व्यवच्छेद हो जाने पर 'अव्यभिचारि' पद निरर्थक ही ठहरेगा। एवं शब्दविनिर्मुक्त जल-ज्ञान का स्वीकार तो जैनमत का ही स्वीकार होने से फिर तो कोई दोष को अवकाश ही नहीं रहेगा। 30 [ 'व्यवसायत्मक' पद समीक्षा ] अव्यभिचारिपद की व्यर्थता प्रदर्शित कर के अब ग्रन्थकर्ता व्यवसायात्मक-पद की निरर्थकता प्रत्यक्षलक्षणप्रतिषेध के संदर्भ में दिखा रहे हैं। 'व्यवसायात्मक' यह पद निरर्थक इसलिये है कि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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