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________________ सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - २ तज्ज्ञानस्याऽविपर्यस्ततेति तद्व्यवच्छेदार्थमव्यभिचारिपदोपादानमनर्थकं भवेत् । सामान्यवतोऽर्थस्य केवलस्य तज्जनकत्वे तस्यैव तत्र प्रतिभास: स्यात् । यदपि 'तिरस्कृतस्वाकारस्य परिगृहीताकारान्तरस्य तस्य तज्जनकत्वम्' (२२८-३) तत्रापि वस्तुनः स्वाकारतिरस्कारे वस्तुत्वमेव न स्यादिति कथं तस्य सामान्यविशिष्टता ? तथाहि - मरीचीनां मरीच्याकारतापरित्यागे वस्तुत्वमेव परित्यक्तं भवेत् स्वाकारलक्षणत्वाद् वस्तुनः । न 5 चाकारान्तरस्य परिग्रहः सम्भवति, वस्त्वन्तरस्य वस्त्वन्तरानापत्तिरूपत्वात्, तदापत्तिरूपत्वे वा मरीचय उदकरूपतामापन्ना इति तत्प्रतिभासि ज्ञानं सत्योदकज्ञानवदविपर्यस्तमिति तद्व्यवच्छेदार्थमव्यभिचारिपदोपादानं न कार्यं भवेत् । सामान्यविशिष्टस्य च वस्तुनः इन्द्रियसम्बद्धस्य विपर्ययज्ञानजनकत्वे यत्रांशे तस्येन्द्रियसम्बन्धोत्पाद्यत्वं तत्राध्यक्षता प्रमाणता च, अन्यत्र तद्विपर्यय इत्येकं ज्ञानमध्यक्षं प्रमाणं तद्विपर्ययरूपं ३१८ स्मृति उपस्थापित जल तो अविद्यमान हो कर भी मरीचिजलस्थल में प्रतिभासित होता है इसलिये उस 10 को मृगजलीयज्ञान का जनक मानना पडेगा ।' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'जो जनक होता है वह विद्यमान हो कर ही जनक होता है' इस नियमबल से मानना पडेगा कि वहाँ भी यदि स्मृति उपस्थापित विशेष जनक है तो वहाँ जलज्ञान विद्यमानविशेषविषयक ही है, फिर उस ज्ञान को विपर्यस्त कैसे कहा जाय ? फिर उस के व्यवच्छेद के लिये 'अव्यभिचारि' पद का प्रयोजन भी क्या ? यदि कहें कि वहाँ विशेष जनक नहीं है सिर्फ सामान्यवान् अर्थ ही जनक है तब तो पूर्वोक्त नियमानुसार ज्ञान में सिर्फ 15 सामान्यवान् (मरीचि ) का ही प्रतिभास होगा, विशेष (जल) का प्रतिभास नहीं होगा । [ स्वविषयाकार संवरण एवं अन्याकार का धारण अयुक्तिक ] पहले जो कहा था (२२८-३३।३१५-२२) 'अपने ( मरीचिरूप) आकार का संवरण कर के अन्य (जल) के आकार का स्वांग धारण करनेवाला ( मरीचिरूप) अर्थ ही ज्ञान का ( मृगजल ज्ञान का) जनक है। यहाँ भी, मुख्य बात यह है कि अगर वस्तु अपने ही आकार का संवरण यानी 20 तिरस्कार करेगा तो वह अपने वस्तुत्व को ही खो बैठेगा, फिर उस वस्तु को सामान्यविशिष्ट भी कैसे माना जायेगा ? देखिये मरीचि जब अपने मरीचि आकार का संवरण- तिरस्कार- परित्याग कर देगा तो अपने वस्तुत्व को ही गँवा देगा, क्योंकि आकार का अर्थ है वस्तु का अपना लक्षण या स्वरूप । एवं वस्तु अन्य आकार को अपना ले यह असम्भव है, क्योंकि एक वस्तु अन्य वस्तुमय कभी बन नहीं सकती । फिर भी यदि वैसा होना मान ले तो फलितार्थ यहाँ ऐसा होगा कि मरीचि स्वयं जलस्वरूप 25 में परिवर्तित हो गये, यानी वहाँ अब मरीचि की नहीं जल की ही सत्ता है, उस का प्रतिभासि ज्ञान जो है वह अन्यत्र सत्यजल प्रतिभासी ज्ञान की तरह यहाँ भी सत्य जल का ही प्रतिभासि हो गया, तब उसे विपर्यस्त कैसे कह सकेंगे ? वह ज्ञान सत्य ही है, अव्यभिचारि ही है, तब उस के व्यवच्छेद के लिये अव्यभिचारि पद का प्रयोग करने की जरूर नहीं है । यदि सामान्य से अवगुण्ठित इन्द्रियसम्बद्ध वस्तु विपरीतज्ञान को उत्पन्न करेगी तो उस के जिस 30 (सामान्य) अंश में इन्द्रियसम्बन्धजन्यत्व है उतने अंश में वह ज्ञान प्रत्यक्ष एवं प्रमाणभूत मानना होगा, जिस अंश (विशेष) में इन्द्रियसम्बन्धजन्यत्व नहीं है उतने अंश में वह ज्ञान अप्रत्यक्ष एवं अप्रमाण मानना पडेगा इस प्रकार एक ही ज्ञान में परस्परविरुद्ध प्रत्यक्षता- अप्रत्यक्षता, प्रमाणता - अप्रमाणता Jain Educationa International - For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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