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________________ 5 10 खण्ड-४, गाथा-१ २७१ अथ वर्तमानार्थग्रहणस्वभावोऽध्यक्षस्यैव न शब्दादेः। उक्तं च, “सम्बद्धं वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिना।" (श्लो.वा.प्र.श्लो.८४) तथा “एष प्रत्यक्षधर्मश्च वर्तमानार्थतैव या" (श्लो.वा.निरा.श्लो.११४) “सन्निकष्टार्थवृत्तित्वं न तु ज्ञानान्तरेष्वयम्” (श्लो.वा.निरा.श्लो.११५) इति । असदेतत् - मनोविज्ञानस्यातीतानागतार्थग्रहणे व्याघाताभावात्। चक्षुरादिप्रभवप्रतिपत्तीनां तु युक्त एव वर्तमानार्थग्रहणलक्षणो धर्मः, न तु मानसस्य, अन्यथा चोदनाजनितस्यापि स स्यादित्युक्तम्। ___नन्वेवमपि भाविरूपता भावस्य सावधिः प्रागभावः। न च भिन्नकालत्वाद् वस्त्ववस्तुनोः सम्बन्धः, इति कथं तस्य भाविरूपता? अत्र केचिदाहु:- न तयोरसम्बन्धिता, विशेषण-विशेष्यतया प्रतिपत्तेः । तत्, न हि सम्बन्धपूर्वको विशेषण-विशेष्यभावः, किं तर्हि भाविता भावस्य ? उच्यते – बुद्धौ प्रतिभासमानस्याकारस्य के काल में अनागतकार्यरूप स्वर्गादि अर्थ तो असत् ही होता है। [मनोविज्ञान भाविअर्थग्राहि होने में आक्षेप-प्रतिकार ] यदि कहा जाय – विधिवाक्यजनित स्वर्गादि अनागतार्थ के बारे में निर्विषयता का दोष नहीं हो सकता क्योंकि शब्दादिजन्य ज्ञान का ऐसा स्वभाव नहीं है कि वह वर्तमानकालीनमात्र अर्थ का ग्रहण करे। जब कि प्रत्यक्ष का ही यह स्वभाव (= धर्म) होता है कि वह सिर्फ वर्तमान अर्थ का ग्राहक होता है। श्लोकवार्त्तिक में कहा है, “चक्षु आदि (इन्द्रियों) से (सिर्फ) वर्तमान एवं संनिहित अर्थ का ही ग्रहण होता है। तथा – यह जो वर्तमानार्थ(ग्राहि)ता है वह (सिर्फ) प्रत्यक्ष का ही धर्म है। प्रत्यक्ष भिन्न ज्ञानों का 15 यह (वर्तमानार्थता) कोई धर्म नहीं है कि संनिहितार्थ में ही प्रवृत्ति करे।" नैयायिक कहता है कि यह सब गलत है। कारण, सर्वविदित है कि अतीत-अनागत अर्थ के ग्रहण में मनोजन्यविज्ञान को कोई व्याघात नहीं होता। हाँ, चक्षु आदि (इन्द्रिय) जन्य बोधों का यह धर्म जरूर होता है कि वे वर्तमानकालीन अर्थ का ही ग्रहण करते हैं। किन्तु मानस प्रत्यक्ष ज्ञान का ऐसा धर्म नहीं है। यदि वर्त्तमानार्थग्राहिता धर्म को अपनी सीमा लाँघ कर मनोविज्ञान तक ले 20 जायेंगे तो विधिवाक्यार्थ चोदना जन्य ज्ञान भी उस की चपेट में क्यों नहीं आयेगा ? [भाविरूपता का विशेषण-विशेष्यभाव कैसे ? ] __मीमांसक :- मानसज्ञान त्रिकालविषयक मान लेने पर भी उस से गृहीत होनेवाली भावि पदार्थ की भाविरूपता का विचार करना पडेगा, आखिर तो वह सप्रतियोगिक प्रागभावरूप ही है। यहाँ स्पष्ट है कि प्रागभाव और उस का प्रतियोगि भिन्नकालीन ही होते हैं। प्रागभाव अवस्तुरूप है और प्रतियोगी 25 तो वस्तरूप है। कैसे उन दोनों का सम्बन्ध मेल खायेगा ? जब प्रतियोगी रूप पदार्थ और प्रागभाव का मेल ही नहीं बैठता तो उस पदार्थ के साथ भाविरूपता का भी मेल कैसे बैठेगा ? तब प्रागभाव के सम्बन्ध बिना किसी भी अर्थ की भाविरूपता संगत नहीं हो सकती। यहाँ कुछ नैयायिकों का उत्तर यह है कि जब 'प्रतियोगी का प्रागभाव' भासित होता है तब प्रागभाव विशेष्यतया और प्रतियोगी विशेषणतया भासता है। विना सम्बन्ध विशेषण-विशेष्यभाव का 30 बोध अशक्य होने से प्रतियोगी और प्रागभाव का सम्बन्ध सहज सिद्ध हो जाता है। यह उत्तर उचित नहीं है, क्योंकि सम्बन्ध के विना भी विशेषण-विशेष्यभाव बन सकता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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