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________________ २६६ सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - २ स च कथं प्रदर्श्यत इति वक्तव्यम् । अथ योगिप्रत्यक्षं धर्मग्राहकं न भवति विद्यमानोपलम्भनत्वात् । न, तोरसिद्धत्वात् । अथ तत्सिद्ध्यर्थं हेत्वन्तरोपादानम् तथाहि, विद्यमानोपलम्भनं योगिप्रत्यक्षं सत्सम्प्रयोगजत्वात् । न, अस्याप्यसिद्धत्वात्। अथैतत्सिद्धये हेत्वन्तरमुपादीयते - विवादास्पदं सत्संयोगजं प्रत्यक्षत्वात् तच्छब्दवाच्यत्वाद्वा, 'अस्मदादिप्रत्यक्षवदि'ति दृष्टान्तः सर्वत्र वक्तव्यः । धर्मादिग्राहकत्वे वा धर्मादेरसत्त्वान्न विद्यमानोपलम्भकत्वमिति 5 विपर्ययः, अविद्यमानोपलम्भनत्वे च न सत्संयोगजम् असत्संयोगजत्वे वा न प्रत्यक्षम् नापि तच्छब्दवाच्यम् । ननु भवत्येवं प्रसङ्गपूर्वको विपर्ययः, तस्य त्वनेन किं सद्भावो निषिध्यत उत प्रत्यक्षत्वम् ? प्राच्ये विकल्पे धर्म्यसिद्धता हेतूनाम् इत्युक्तम् । द्वितीयेऽपि तस्य प्रमाणान्तरत्वप्रसक्तिः विशेषप्रतिषेधस्य शेषाभ्यनुज्ञानलक्षणत्वात् । स्यादेतत्- विशेषप्रतिषेधे धर्मिण एव प्रतिषेधः तस्य तद्रूपतयैवाभ्युपगमात् । [ योगिप्रत्यक्ष प्रति प्रसङ्गसाधन की असंगतता ] दूसरी बात यह है कि आपने जो यहाँ योगिप्रत्यक्ष के बारे में प्रसङ्गसाधन दिखलाया है वह यहाँ संगत नहीं है। कारण यह है कि प्रसङ्ग का निरूपण हर हमेश विपर्ययफलक यानी विपरीत अर्थ साधक होता है अत एव पहले प्रसङ्ग का निरूपण किया जाता है। अब आप दिखाओ कि प्रस्तुत में यहाँ किस तरह प्रसङ्ग लागू होता है ? आप यदि कहेंगे योगिप्रत्यक्ष धर्मग्राहक नहीं होता, क्योंकि वह वर्त्तमानग्राही होता है । तो हेतु असिद्ध होने से यह प्रयोग गलत है। आप 15 कैसे कह सकते हैं कि योगिप्रत्यक्ष वर्त्तमानग्राही ही होता है ? यदि वर्त्तमानग्राहिता हेतु की सिद्धि के लिये अन्य किसी हेतु की तलाश करेंगे, जैसे - योगिप्रत्यक्ष वर्त्तमानग्राही है क्योंकि सद्भूत अर्थ के संनिकर्ष से जन्य है । तो यह भी गलत है क्योंकि यहाँ भी हेतु सद्भूतार्थसंनिकर्ष असिद्ध है । यहाँ आप पुनः हेतु की सिद्धि के लिये प्रयोग करेंगे तो क्या करेंगे यही तो कि ‘विवादास्पद योगिप्रत्यक्ष सद्भूतार्थ- संनिकर्षजन्य है क्योंकि स्वयं प्रत्यक्षरूप है 20 अथवा स्वयं प्रत्यक्षशब्दवाच्य । यहाँ और पहले जो दो प्रयोग कहे हैं तीनों में हम आप के प्रत्यक्ष का उदाहरण जान लेना । प्रसङ्गवादी कहता है कि 'यदि प्रतिवादी कहें कि योगिप्रत्यक्ष धर्मादिग्राहक है, तो योगिप्रत्यक्ष विद्यमान ( सद्भूत) अर्थग्राही नहीं हो सकेगा क्योंकि अतीत अनागत धर्मादि तो असत् है।' इस तरह प्रसङ्गवादी के मतानुसार विपर्यय फलित हो गया। यदि प्रतिवादी कहेंगे कि हम योगिप्रत्यक्ष को अतीतादिअर्थग्राही होने से मात्र विद्यमानार्थग्राही नहीं मानेंगे तो यहाँ भी 25 अविद्यमानार्थग्राही होने से सद्भूतार्थसंनिकर्षजन्यत्व का विपर्यय ही फलित होगा । यदि उसे भी मान लेंगे तो योगिज्ञान में प्रत्यक्षत्व का अभाव सिद्ध हो जायेगा । अथवा प्रत्यक्षशब्दवाच्यत्व का व्यतिरेक सिद्ध हो जाने पर प्रसङ्गसाधन सफल हो गया । [ मीमांसक प्रदर्शित प्रसङ्गपूर्वकविपर्यय से निषेध किस का ? ] नैयायिक विद्वान् कहते हैं प्रसङ्गसाधन का परिणाम विपर्यय होता है यह सच है, किन्तु 30 प्रश्न यह है कि आप को विपर्यय के द्वारा यहाँ क्या अभीष्ट है ? योगिप्रत्यक्ष के अस्तित्व का ही निषेध या उस के सिर्फ प्रत्यक्षत्व का निषेध ? पहले विकल्प में तो, योगिप्रत्यक्ष सर्वथा असत् सिद्ध होने से आप के पूर्वोक्त सभी हेतु (विद्यमानोपलम्भनत्व आदि) आश्रयासिद्धि दोष से 10 - Jain Educationa International - — For Personal and Private Use Only - - - www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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