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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ विशिष्टार्थग्रहणस्यान्यथाऽसम्भवात् कथ्यते। न च यथावस्थितवस्तुग्रहणं कल्पना, अतीतादिग्रहणवत् ।
न च जात्यादित्रयस्याभिन्नस्य भेदाध्यवसाय: दण्डशब्दयोर्भिन्नयोरभेदाध्यवसायो वा, कल्पनाद्वयस्याप्यसम्भवात्। तथाहि-न जात्यादित्रयस्य वस्तुनोऽव्यतिरेकादसत्त्वाद्वाऽभेदे भेदाध्यवसाय: द्वयोरप्यनुपपत्तेः ।
न हि जात्यादेरभेदे असत्त्वे वा तद्व्यवच्छिन्नवस्तुग्रहणसम्भवः असतो अभिन्नस्य वा अवच्छेदकत्वानुपपत्तेः । 5 न च तत्प्रतिभासेऽपि प्रतिभासविषयस्य द्विचन्द्रादेरिव प्रमाणबाधितत्वात् तत्प्रतिभासोऽप्रमाणम्, यतो न
द्विचन्द्रादेरिव जात्यादेः किञ्चिद् बाधकम् वृत्तिविकल्पादेस्तद्बाधकस्य निषेधात् । तद् न जात्यादित्रयस्याऽभिन्नस्य भेदप्रतिभासः कल्पना। नापि दण्ड-शब्दयोरभेदाध्यवसाय:, यदि तत्राऽभेदप्रतिपत्तिस्तदैकप्रतिभासेऽवच्छेदकावच्छेद्यभावेन ग्रहणं न भवेत्, किं हि तदपेक्षावच्छेदकमवच्छेद्यं वा अर्थान्तरापेक्षत्वात् तयोः। तथाहि
दण्डस्य दण्डिनं प्रति व्यवच्छेदकत्वेन प्रतिभासो नैकत्वेन, एवं वाचकस्यापि वाच्यप्रतिपत्तौ दृष्टव्यम् । 10 भी एक साथ एक झटके से ही होता है। हाँ, उस अर्थग्रहण में उन तीनों का 'ये तीन' ऐसा भी
प्रतिभास प्रविष्ट रहता है, क्योंकि उस के विना उन तीनों से गुम्फित विशिष्टार्थग्रहण सम्भव नहीं होगा। अतीत-अनुत्पन्न का ग्रहण तो कल्पनारूप हो सकता है क्योंकि वह अवस्तुग्राही है, किन्तु उसके दृष्टान्त से, यथावस्थित विशेषणविशिष्ट वर्तमान वस्तुग्राही ज्ञान को कल्पना कहना गैरमुनासिब ही है।
[जात्यादि त्रय एवं शब्द-अर्थ में कल्पनाद्वय का निरसन ] 15 यदि आप कहेंगे कि - ‘जातिरूप विशेषण, व्यक्तिरूप विशेष्य और उन का संसर्ग, इन तीनों __ में अगर अभेद रहते हुए भी एक झटके से हो जानेवाले विशेषणविशिष्टअर्थग्राही विकल्प में उन तीनों
का भेद ('ये तीन') इस प्रकार भासित होता है तो वह 'कल्पना' ही बन जायेगा न कि प्रत्यक्ष । दूसरी बात - दण्ड और उस के वाचक शब्द, इन दोनों में भेद रहते हुये भी अभेद का अध्यवसाय
होने पर दण्ड का विकल्प भी मिथ्या यानी कल्पनारूप ही सिद्ध होगा। अत एव उस को प्रमाण 20 नहीं कह सकते ।' – तो इस कथन में दोनों कल्पना असम्भव है। कैसे यह देखिये -
जाति आदि तीन यदि सर्वथा वस्तु से अभिन्न होंगे अथवा सर्वथा असत् होंगे तो दोनों स्थिति में, अभेद में भेदाध्यवसाय का होना असंगत है। जाति आदि तीनों का अभेद होने पर अथवा तीनों ही असत् होने पर कोई किसी से विशिष्ट न होने से, जाति आदि से व्यवच्छिन्न यानी विशिष्ट
अर्थ का ग्रहण संभवित ही नहीं है। नियम है कि अभिन्न या असत् पदार्थों में विशेषण-विशेष्य या 25 अवच्छेदक-अवच्छेद्य भाव संगत नहीं होता।
[जाति आदि का प्रतिभास मिथ्या नहीं ] यदि कहें कि - "जात्यादि तीन का प्रतिभास होता है, हम उस का निषेध नहीं करते, किन्तु मिथ्याप्रतिभास का विषय चन्द्रद्वैत प्रमाणबाधित होने से जैसे हम चन्द्रद्वैतग्राहक प्रतिभास को अप्रमाण
ठहराते हैं वैसे ही जात्यादि का प्रतिभास भी अप्रमाण है क्योंकि उस का विषय (जात्यादि) प्रमाणबाधित 30 है।” - तो यह गलत है क्योंकि जाति आदि को स्वीकारने में कोई ठोस बाधक नहीं है। वह
अपने आश्रय में सर्वात्मना रहेगा या देश से ?' ऐसे विकल्पों के द्वारा भी जाति का बाध संभव नहीं है, क्योंकि हम अपने ग्रन्थों में उस का निरसन कर चुके हैं। निष्कर्ष, “जाति-व्यक्ति-संसर्ग तीनो
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