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__ खण्ड-४, गाथा-१
२२९ नन्वस्य शब्दसहायेन्द्रियार्थसंनिकर्षजत्वेन नाऽव्यभिचारिपदव्यवच्छेद्यत्वम् अव्यपदेश्यपदेनैव निरस्तत्वात्। न, प्रथमाक्षसंनिपातजस्य शब्दस्मरणनिमित्तस्येन्द्रियार्थसंनिकर्षप्रभवस्याऽशब्दजन्यस्याऽव्यभिचारिपदापोह्यत्वाभ्युपगमात् । अभ्युपगमनीयं चैतत्, अन्यथोदकशब्दस्मृतेरयोगात् – 'यत्संनिधाने यो दृष्टस्तद्दष्टेस्तद्ध्वनौ स्मृतिः। ( )' इति न्यायात् । न च तरंगायमाणवस्तुसंनिधाने उदकशब्दस्य दृष्टिः किन्तूदकसन्निधान एव। अतो मरु-जङ्गलादौ देशे क्वचिद् दूरस्थस्य निदाघसमये तरंगायमाणवस्तुनः सामान्यविशिष्टस्य 5 दर्शनम् तदनन्तरं तत्सहचरितोदकत्वानुस्मरणम् तस्मात् सामान्यवत्ताध्यारोपितोदकग्रहणम् तत उदकशब्दानुस्मृतिः ततोप्यनुस्मृतोदकसहायादिन्द्रियार्थसंनिकर्षात् 'उदकम्' इति ज्ञानम् अतो यत् पूर्वमुदकशब्दस्मृतेनिमित्तं तद् इन्द्रियार्थसंनिकर्षजत्वेनाऽव्यभिचारिपदापोह्यमिति केचित् सम्प्रतिपन्नाः। जिस का अपना आकार (यानी मरीचित्वविशेषरूप) प्रच्छन्न बना रहे और अन्य कोई आकार जिसने धारण कर लिया है ऐसे सामान्यस्वरूपवाली वस्तु का इन्द्रिय के साथ जब कभी सम्बन्ध लग जाता 10 है तो विपर्यास निष्पन्न होता है। अब कहिये कि विपर्यय (भ्रान्ति) को इन्द्रिय-अर्थसंनिकर्षमूलक क्यों न माना जाय ? तात्पर्य, प्रत्यक्ष की तरह भ्रम भी इन्द्रियसंनिकर्षजन्य व्यभिचारिज्ञानरूप होता है, उस का व्यवच्छेद करने के लिये लक्षण में 'अव्यभिचारि' पद सार्थक बनता है।
[अव्यभिचारपद व्यवच्छेद्य का स्पष्टीकरण ] आशंका :- व्यभिचारि ज्ञान इन्द्रिय-विषयसंनिकर्षजन्य है यह ठीक है, किन्तु उस को शब्द की 15 सहायता भी चाहिये क्योंकि उस वक्त 'जल'शब्दस्मृति के विना ‘यह जल है' ऐसा व्यभिचारिज्ञान हो नहीं सकता। शब्दसहायजन्य इस व्यभिचारि ज्ञान का तो 'अव्यपदेश्य' पद से ही व्यावर्तन हो जाता है। इसलिये लक्षण में 'अव्यभिचारि' पद का प्रयोग निरर्थक है।
उत्तर :- नहीं, प्रथम प्रथम इन्द्रियसंनिपात से जो इन्द्रियसंनिकर्षजन्य व्यभिचारि ज्ञान होता है उस में शब्द का स्मरण भले निमित्त हो, शब्द निमित्त नहीं है, इसलिये वह शब्दजन्य न होने से 20 अव्यपदेश्यपद से उस का व्यावर्तन सम्भव नहीं है, अत एव 'अव्यभिचारि' पद से ही उस की व्यावृत्ति मानी जाती है। इस तथ्य का स्वीकार अवश्य करणीय है, अन्यथा व्यभिचारि जलज्ञान स्थल में 'जल' शब्द का स्मरण भी अशक्य हो जायेगा। कैसे यह देखिये - यह एक न्याय (नियम) है कि “जिस वस्तु के संनिधान में जिस शब्द का उल्लेख दृष्टिगोचर होता है उस वस्तु के दृष्टिगोचर होने पर उस के (वाचक) शब्द का स्मरण होता है।” प्रस्तुत में 'जल' शब्द उल्लेख कब दृष्टिगोचर होता 25 है - जल के संनिधान में, न कि तरंगावस्थापन्न (मरीचि आदि यत् तद्) वस्तु के संनिधान में। इस लिये यहाँ 'जल' शब्द स्मृति (व्यभिचार ज्ञानस्थल में) कैसे होगी यह ध्यान से सोचिये - समझिये, - मरुदेश या जलरहित जंगल में किसी पुरुष को ग्रीष्मऋतु में दूर से नजर डालने पर सामान्याकार विशिष्ट ही तरंगावस्थापन्न (मरीचि आदि) वस्तु का पहले दर्शन होगा। उस के बाद तरंगादिअवस्था के साम्य (सादृश्य) के जरिये 'जल' का स्मरण होगा। न 'जल' शब्द का | उस के बाद तरंगावस्थापन्न 30 सामान्याकार से गृहीतवस्तु (मरीचि आदि) में आरोपित (यानी जो वहाँ वास्तव में नहीं है) जल का ग्रहण उदित होगा। (यही व्यभिचारि ज्ञान हुआ जो शब्द से अजन्य है और जिस की व्यावृत्ति
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