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खण्ड-४, गाथा-१ ज्ञानस्य सम्भवति किमनेन विशेषणेन कृत्यम् ? तथाहि- इन्द्रियविषयभूतेन रूपेण शब्देन वा जनितं ज्ञानमिति कोऽत्र प्रत्यक्षत्वे विशेषः ? सर्वथा लक्षणं युक्तिमदेव, विशेषणं चातिव्याप्त्यादिदोषनिवृत्त्यर्थं लक्षणे उपादेयम् न परपक्षव्युदासार्थम् । ___ इन्द्रियसंनिकर्षादुपजातं शब्देन चाऽजनितं व्यभिचारिज्ञानं न प्रत्यक्षव्यवच्छेदकम् – इत्यव्यभिचारिपदोपादानम्। इन्द्रियजत्वं च मरीचिषूदकज्ञानस्य तद्भावभावित्वेनावसीयते। मरीच्यालम्बनत्वमपि तत 5 एवावसीयते मरीचिदेशं प्रति प्रवृत्तेश्च। पूर्वानुभूतोदकविषयत्वे तु तद्देशै(?शे ए)व प्रवृत्तिर्भवेद् न मरीचिदेशे। 'भ्रान्तत्वात् न तद्देशे प्रवर्तत इति चेत् ? य एवाऽभ्रान्तः स उदकस्मरणादुदकदेशे एव प्रवर्त्तते अयं तु भ्रान्त इति।' - अयुक्तमेतद् भ्रान्तिनिमित्ताभावात् । ‘इन्द्रियव्यापार एव तन्निमित्त' इति चेत् ? अयुक्तमेतत्, तत एवेन्द्रियजन्यत्वसिद्धेः । न च स्मृतिर्बाह्येन्द्रियजा दृष्टा, इदं तु बाह्येन्द्रियजमिति न स्मृतिः । ननु कथमुदकज्ञानस्यालंबनं मरीचयोऽप्रतिभासमाना: ? उक्तमेतत् तेषु सत्सु भावादस्य। ननु 10 यद्येतद् अनुदके उदकप्रतिभासं भवति अन्यत्र किमिति न भवेत् ? न भवत्यन्यस्योदकेन सारूप्याभावात् ।
[अव्यपदेश्य पद द्वारा शब्दब्रह्मवादनिरसन अनुचित ] कुछ लोग मानते हैं - यह 'अव्यपदेश्य' पद शब्दब्रह्म में अतिव्याप्ति दूर करने के लिये, अथवा शब्दब्रह्म की मान्यता का अपहरण करने के लिये प्रयुक्त है। - किन्तु यह मान्यता अयुक्त है क्योंकि न्यायदर्शन के प्रतिपादन में वैयाकरणों के शब्दब्रह्म के निरसन का यहाँ इस सूत्र के संदर्भ में कोई 15 अवसर ही नहीं है। तात्पर्य यह है कि इन्द्रियविषयसंनिकर्ष से उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष होता है भले ही वह शब्द से प्रमेय हो - फिर 'अव्यपदेश्य' विशेषण का कोई प्रयोजन ही नहीं रहता। ज्ञान चाहे इन्द्रिय के विषयभूत रूप या शब्द से उत्पन्न हो दोनों ही विना भेदभाव प्रत्यक्ष होते हैं, फिर किसके लिये 'अव्यपदेश्य' पद रखना ? लक्षण तो हरहमेश पूर्णतया युक्तिसंगत ही होना चाहिये । एवं विशेषण भी लक्षण में संभवित अव्याप्ति-अतिव्याप्ति आदि दोषों के निराकरण के लिये ही प्रयुक्त 20 करना चाहिये, न कि अन्य किसी दर्शन की मान्यता का खंडन करने के लिये। सारांश, वैयाकरणों के शब्दब्रह्मवाद के निरसन का अभिप्राय अव्यपदेश्यपद से फलित करना यक्तिबाह्य है।
[ 'अव्यभिचारि' विशेषण की सार्थकता ] ___ इन्द्रियविषयसंनिकर्ष से उत्पन्न हो, शब्दजन्य न हो ऐसा तो व्यभिचारिज्ञान (यानी मिथ्याज्ञान) भी होता है किन्तु वह प्रत्यक्ष का व्यवच्छेदक (यानी प्रत्यक्ष की सीमा में अन्तर्गत) नहीं होता। यदि 25 'अव्यभिचारि' पद लक्षण में न रहे तो इस में अतिव्याप्ति होगी, उस को दूर करने के लिये ‘अव्यभिचारि' पद का निवेश सार्थक है।
यहाँ विवाद इस बात का है कि क्या व्यभिचारि ज्ञान इन्द्रियजन्य होता है ? नैयायिक कहते हैं - मरुदेश में मरीचिका (तप्तरेतवाली भूमि पर पड़ने वाले सूर्यरश्मि) में जो जलज्ञान होता है वह 'चक्षुइन्द्रिय' के व्यापार के रहते हुए ही होता है, इस अन्वयबल से ही उस जलज्ञान में 30 चक्षुइन्द्रियजन्यत्व स्थापित होता है। यदि पूछा जाय कि यद्यपि वहाँ जल नहीं है किन्तु इस ज्ञान का विषय मरीचि ही होते हैं यह कैसे मान लिया जाय ? - उत्तर है कि उस ज्ञान के बाद जलार्थी
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