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________________ ९२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ कथमनुमानम् ? स्वसाध्याऽविनाभावितद्ग्रहणात् तदपि तद्योग्यतया । ननु अनुमानं स्वविषयतया विषयीकरोति न ज्ञानान्तरमिति कुतोऽयं विभाग: ? न चानुमानं न किञ्चिद् विषयीकरोति, तस्याऽप्रमाणत्वप्रसक्तेः । न च समारोपव्यवच्छेदकरणात् तत् प्रमाणम्, समानाऽसमानसमयसमारोपव्यवच्छेदविधानेऽर्थग्रहणवद्दोषप्रसक्तेः । तथाहि- भिन्नसमयसमारोपव्यवच्छेदविधाने एकस्मादेवानुमानात् सकलसमारोपविच्छेदोदयात् सकलं जगत् असमारोपम् इति समारोपान्तरसमुच्छेदार्थमानान्तरान्वेषणमनर्थकमासज्येत। अथ भिन्नसमयोप्यसौ कश्चिदेव केनचित् तेन समुच्छिद्यते। ननु भिन्नकालोऽर्थोपि कश्चिदेव केनचित् संवेदनेन विषयीक्रियते न सर्वेः सर्वेणेति समानम्। यथा च स्वरूपं समारोपस्य व्यवच्छिद्यते तथाऽर्थस्य तदेव विषयीक्रियते इत्यपि समानम्। लिंग में वैसी योग्यता यानी सामर्थ्य नहीं है, उक्तप्रकार के लिंगज्ञान में ही वैसा सामर्थ्य है। इस 10 पूर्वपक्षी के मत के सामने उत्तरपक्षी पूछते हैं कि यहाँ तो अनुमान स्व-आत्मक विषय का ही ग्राहक बन कर अपने को ही विषय करता है तो अन्यज्ञानविषयक बन कर अन्य ज्ञान को क्यों विषय नहीं करता ? 'स्व का ग्राहक बनता है - अन्य ज्ञान का ग्राहक नहीं बनता' ऐसे विभाग का निमित्त क्या है ? यदि कहा जाय कि - अनुमान न स्व को न पर को, किसी को भी विषय नहीं करता। - तो यह गलत है क्योंकि तब निर्विषय होने से अनुमान अप्रमाणभूत ठहरेगा। * समारोप व्यवच्छेद एवं बाह्यार्थपक्ष में युक्तितुल्यता * यदि कहा जाय - ‘अनुमान (वढ्यभाव की आशंकारूप) समारोप का विध्वंसक होने से प्रमाण माना गया है।' – तो यह गलत है, क्योंकि जैसे आपने “ज्ञान अपने समानकाल में अर्थ का ग्रहण करेगा या भिन्नकाल में” (पृ.८४ पं०२) ऐसे विकल्प किये हैं, वैसे प्रस्तुत में ‘अनुमान समानकालीन समारोप का व्यवच्छेद करेगा या भिन्नकालीन ?' ऐसे विकल्प सावकाश हैं। देखिये, यदि अनुमान अपने 20 से भिन्नकालीन समारोप का ध्वंस कर सकता है तो एक ही उस अनुमान से स्वभिन्नकालीन भविष्य के सर्व समारोपों का उच्छेद कर सकेगा, फलतः सारा विश्व समारोपशून्य हो जायेगा। अतः भावि किसी भी अन्य अन्य समारोप के ध्वंस के लिये और किसी नये अनुमान की खोज निरर्थक बन जायेगी। यदि कहें कि - भिन्नकालीनता पक्ष में सर्व भाविसमारोपों का उच्छेद नहीं होता, नियम सिर्फ इतना ही है कि किसी एक अनुमान से किसी एक भिन्नकालीन समारोप का ही उच्छेद होता है। 25 - अहो ! तब तो बाह्यार्थपक्ष में भी नियम इतना ही है कि कोई एक ज्ञान किसी एक (या दो तीन) अर्थ को ही विषय करता है न कि प्रत्येक ज्ञान सब अर्थों को। दोनों मत में यह समानता हो सकती है। आपने जो कहा है कि - ‘ज्ञान भिन्नकालीन अतीत-अनागत अर्थ के ग्रहण में प्रवृत्त होगा तो अतीत-अनागत अर्थ असत् होने से ज्ञान निर्विषय हो जायेगा' - यह भी व्यर्थ है, क्योंकि जैसे आप के मत में अनुमान भिन्नकालीन समारोप के स्वरूप का व्यवच्छेद कर सकता है वैसे ही 30 हमारे मत में ज्ञान भिन्नकालीन अ. अना० अर्थ के अतीतत्वादि स्वरूप को विषय कर सकता है; दोनों पक्ष में समानता है। For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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