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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ विधीयते तर्हि तयापि तथाविधापरोत्पत्तिर्विधीयत इत्यनवस्थानान्नानुमानसद्भावः ।
किञ्च लिङ्गेनोत्पत्तिः स्वसमया भिन्नसमया वा विधीयते ? भिन्नसमया चेत् ? अर्थग्रहणवत्प्रसक्तिः । समानसमया चेत् ? सव्येतरगोविषाणवदन्योन्यमुपकार्योपकारकभावाभावान्न जन्यजनकभावः, तद्भावे वा
तदुत्पत्ति (?ज)न्यता लिङ्गस्य प्रसज्येत ततश्च लिङ्गमुत्पत्तिर्भवेत् तत्कार्यत्वात् उत्तरोत्पत्तिवत् । न च 5 लिङ्गेनोत्पत्तिर्विधीयते न तया लिङ्गम् तस्यामेव कार्यताप्रतीतेरिति वक्तव्यम्; तद्व्यतिरेकेण कार्यताऽप्रतीतेः,
प्रतीतौ वा 'लिङ्गम्-कार्यता-उत्पत्तिः' इति त्रितयं परस्पराऽसम्बद्धं भवेत् । न च तत्स्वरूपमेव कार्यता लिङ्गस्यापि ततस्तद्भावापत्तेः। अथ तदविशेषेऽपि प्रतिनियतः कार्यकारणभावः उत्पत्तिलिङ्गयोस्तर्हि ज्ञानार्थयोः स्वरूपाऽविशेषेऽपि नियतो ग्राह्यग्राहकभावः किं न स्यात् ? एवमन्यदपि ग्राह्य-ग्राहकभावपक्षोदितदूषणं
उत्पत्ति का अंगीकार करेंगे तो उस उत्पत्ति का सम्बन्ध जोडने के लिये अन्य एक उत्पत्ति... इस प्रकार 10 तो अनवस्था प्रसक्त होने से अनुमान का अस्तित्व कैसे सिद्ध होगा ?
* लिंग से होनेवाली उत्पत्ति पर समय के विकल्प * और भी एक बात यह है कि लिंग से अनुमान की उत्पत्ति अपने समकाल में होगी या भिन्नकाल में ? यदि भिन्न काल में मानेंगे तो लिंग से अनुमान का उद्भव उसी तरह नहीं होगा जैसे कि
पहले आपने कहा है (न भिन्नकालस्यार्थस्य तेन ग्रहणं संभवति - पृ०८४-पं०२) कि 'ज्ञान से भिन्नकालीन 15 अर्थ का ग्रहण असम्भव है।' यदि समकाल में मानेंगे तो बाये-दायें समकालोत्पन्न गोशृंगों में जैसे
उपकारक-उपकार्य भाव नहीं होता वैसे ही लिंग एवं उत्पत्ति में भी जन्य-जनक भाव नहीं बनेगा। कदाचित् उन में जन्य-जनकभाव स्वीकृत हो, तब तो उलटा भी सम्भव होगा कि लिंग में उत्पत्तिजन्यता होगी। यानी अर्थतः लिंग भी उत्पत्तिस्वरूप बन जायेगा क्योंकि वह अब उत्पत्ति का कार्य
है, जैसे उत्तरकालीनोत्पत्तिक्षण पूर्वकालीन उत्पत्ति का कार्य है तो वह उत्पत्तिस्वरूप है। 20 यदि कहें कि - ‘लिंग एवं उत्पत्ति इन दोनों में परस्पर कार्यताबुद्धि नहीं होती, वह तो सिर्फ
उत्पत्ति में ही होती है, इस से ज्ञात होता है कि समकालीन होने पर भी उत्पत्ति लिंग से जन्य है लेकिन लिंग उत्पत्ति से जन्य नहीं है।' – तो यह गलत है क्योंकि उत्पत्ति से पृथक् किसी कार्यता का भान नहीं होता, उत्पत्ति ही कार्यता है। (अतः उत्पत्तिस्वरूप कार्यता से लिंग की उत्पत्ति का
अनिष्ट.. इत्यादि दोष लगा रहेगा।) यदि उत्पत्ति और कार्यता पृथक् मानेंगे तो परस्पर असम्बद्ध लिंग, 25 उत्पत्ति और कार्यता - ऐसी त्रिक की प्रतीति प्रसक्त होगी। यदि कहें कि - ‘लिंगजन्य उत्पत्ति की
कार्यता उत्पत्तिस्वरूप ही है' तो कहा जा सकता है - समकालीन लिंग उत्पत्ति पक्ष में उत्पत्ति से जन्य लिंग की कार्यता लिंगस्वरूप ही है।
यदि कहा जाय - ‘लिंग एवं उत्पत्ति समकालीन होते हुए भी (अथवा युक्ति दोनों ओर समान होने पर भी) “लिंग कारण है और उत्पत्ति कार्य है ऐसा कारण-कार्यभाव तो प्रकृतिसिद्ध ही है” – 30 तो ऐसा भी कह सकते हैं कि ज्ञान एवं अर्थ का समकालीनत्व स्वरूप तुल्य होने पर भी 'ज्ञान ग्राहक होता है और अर्थ ग्राह्य होता है' ऐसा ग्राहक-ग्राह्य भाव भी प्रकृतिसिद्ध ही है।
ज्ञान एवं अर्थ के ग्राह्य-ग्राहक भाव के पक्ष में जो भी अन्य अन्य दूषण कहे गये हैं वे सब
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