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________________ ८९ खण्ड-४, गाथा-१ भिन्नस्वभावं कार्यद्वयं निवर्तयेत् तर्हि ज्ञानमपि परस्परविविक्तरूपयोः स्वार्थयोरेकं सद् ग्राहकमस्तु तद्ग्रहणैकस्वभावत्वात्, ततो यदि लिङ्गेनानुमानस्योत्पत्तिरनर्थान्तरभूता क्रियते तर्हि ज्ञानेनाऽर्थस्यानर्थान्तरभूता गृहीतिः क्रियत इति समानो न्यायः । अथार्थान्तरभूतोत्पत्तिर्लिङ्गेनानुमानस्य क्रियते तर्हि नानुमानसद्भावः सद्भावेऽपि “लिङ्गम्' 'उत्पत्ति' 'अनुमानम्' इति परस्परासंसक्तत्रितयस्य प्रतिभासात् 'भ्रान्तिरपि सम्बन्धतः प्रमा' (न्या०बि०धर्मो टीका) इति न युक्तमभिधानम् । अथ तयाप्युत्पत्त्या अपराऽर्थान्तरभूतोत्पत्ति- 5 के लिये दूसरे दो स्वभाव मानने पडेंगे...पूर्वोक्त युक्ति से यहाँ भी और एक नयी अनवस्था चोटी पकडेगी। * एक ही ज्ञान से स्व-पर का ग्रहण निर्बाध है * बौद्ध :- भिन्न स्वभाववाले (अनुमान एवं उत्तरलिंगक्षण) दो कार्य करनेवाले लिंग का स्वभाव तो दो कार्य करने का एक ही है। एक स्वभाव से ही दो कार्यों को वह कर सकता है। अनवस्था 10 कहाँ है ? जैन :- अच्छा, ज्ञान भी स्वयं एक स्वभाव होते हुए, परस्पर भिन्न स्वभाववाले स्व और अर्थ दोनों का ग्राहक क्यों नहीं हो सकता ? उस में भी ‘ग्रहण करना' यह एक मात्र स्वभाव मौजूद है। मतलब कि ज्ञान एवं अर्थ में भेद होने में कोई मुसीबत नहीं है, दोनों का एक ज्ञान से ग्रहण सम्भव है। कहने का तात्पर्य यह है कि, जैसे लिंग से होने वाली अनुमान की उत्पत्ति, अनुमान 15 से अनर्थान्तरभूत मानने पर हमने अनुमान में लिंगात्मकता की प्रसक्ति का दोष दिया था, फिर भी आपने एक स्वभाव, भिन्न कार्य आदि तर्कवितर्क कर के जिस न्याय से लिंगजन्य अनुमानोत्पत्ति को अनुमान से अनर्थान्तरभूत मानते हुए अनुमान में लिंगात्मकता की प्रसक्ति का इनकार किया है; उसी न्याय से हम भी कहेंगे कि ज्ञान से होनेवाली बाह्यार्थ की गृहीति (यानी ग्राह्यता) बाह्यार्थ से अनर्थान्तरभूत जरूर है किन्तु उसके आधारभूत बाह्यार्थ में ज्ञानात्मकता की प्रसक्ति नहीं हो सकती। न्याय तो दोनों 20 पक्ष में समान है। यदि कहा जाय- 'लिंग से होनेवाली अनुमान की उत्पत्ति अनुमान से अर्थान्तरभूत है'- तो अनुमान का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होगा क्योंकि वह तो उत्पन्न ही नहीं है। कदाचित कैसे भी उस का अस्तित्व सिद्ध हो जाय फिर भी अनुमान और उत्पत्ति एवं लिंग तीनों ही पृथक पृथक परस्पर असंबद्ध रूप में ही प्रतीत होंगे। उन में कोई सम्बन्ध तो भासित ही नहीं होगा। (जैसे एक चक्र से घट और शराव 25 उत्पन्न होते हैं तब पृथक् पृथक् चक्र, घट, शराव प्रतीत होते हैं न कि परस्पर संबद्ध ।) इस स्थिति में आपने जो कहा है कि “भ्रान्ति भी सम्बन्ध से प्रमा होती है" (अर्थात्, अनुमान भ्रान्तिरूप होने पर भी मणिप्रभा में मणिबुद्धि की तरह परम्परया वस्तु के साथ सम्बन्ध रखने के कारण प्रमारूप मान लिया है) यह धर्मोत्तर पंडित का कथन अयुक्त ठहरेगा। कारण, यहाँ भ्रान्ति के विषयों में परस्पर कोई सम्बन्ध ही नहीं है। यदि उत्पत्ति का उस अनुमान से सम्बन्ध जोडने के लिये (एक नये सम्बन्ध की) नयी 30 7. 'तदाह न्यायवादी - भ्रान्तिरपि सम्बन्धतः प्रमा' - न्यायबिन्दुधर्मोत्तरटीका पृष्ठ ७८ । 'भ्रान्तिरपि च वस्तुसम्बन्धेन प्रमाणमेव' प्र. वार्त्तिकालंकारे ३-१७५ । 'भ्रान्तिरपि अर्थसम्बन्धतः प्रमा' तत्त्वोपप्लव. पृ०३० तथा सिद्धिविनिश्चय पृष्ठ ८२ मध्ये। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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