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________________ ८ प्रस्तावना ११. पृ.४६५ पुद्गल संयोग का उत्कृष्ट असंख्य काल दिखाया है । १२. पृ.४९८ में कहा है कि सम्यग्ज्ञान होने पर नियमतः सम्यग्दर्शन होता है किन्तु सम्यग्दर्शन होने पर भी यदि एकान्तरुचि है तो सम्यग्ज्ञान नहीं है, अनेकान्तरुचि है तो सम्यग्ज्ञान है । इस प्रकार इस व्याख्याग्रन्थ में अनेक जैन सिद्धान्त के प्रमेयों का स्पष्टीकरण प्राप्त होता है । स्व. पूज्यपाद आ. गुरूदेव श्री प्रेम सू. म. सा. की संयम एवं स्वाध्याय के लिये अमूल्य प्रेरणा, स्व. पू.गुरुदेव आ. भुवनभानु सू. म. सा. का वैराग्यपीयूषपान, संयम में स्थिरीकरण, स्वाध्याय में प्रोत्साहन आदि तथा वर्त्तमान सुविशाल ग. प.पूज्य गुरूदेव श्री जयघोष सू. म. सा. का वात्सल्य - सहानुभूति - आगमादि का अध्यापन, स्वाभाविक उदारता करुणा का यह प्रभाव है कि इस ग्रन्थ का हिन्दी विवेचन करने का मैंने कुछ साहस किया है। मैं इन सभी का ऋणी हूँ । हिन्दी विवेचन में छद्मस्थतावश मेरी अनेक गलती हो सकती है एतदर्थ मिच्छामि दुक्कडं । अधिकृत अभ्यासी विद्वान् अवश्य सुधारा कर के पढेंगे। अधिकृत मुमुक्षु वर्ग इस ग्रन्थ का अभ्यास कर के एकान्तवाद की कदाग्रहता से मुक्त बनें यही शुभकामना । Jain Educationa International जयसुंदर विजय आसो वदि २०६६ आसो वदि ६ श्री उमरा जैन संघ (सूरत) में सुकृत परम्परा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयघोषसू० म० सा० के आदेश से पू० आचार्य श्रीजयसुंदरसूरिजी म० सपरिवार का वि० सं० २०६५ में उमरा के जैन संघ (सूरत) के विशाल उपाश्रय में चातुर्मास हुआ । अनेकविध आराधनाओं से श्रीसंघ का हृदय पुलकित हो ऊठा । श्रीसंघ मंदिर बना रहा था । पूज्यश्री महात्माओं के एवं ट्रस्टीगण के प्रयत्नों से, सिद्धपुर ( उ० गु० ) के जैन मंदिर से श्री पद्मप्रभस्वामी ( मूलनायक करने के लिये ) तथा श्री आदीश्वर प्रभु श्री सुपार्श्वनाथ प्रभुजी प्राप्त हुए। तथा निकट में रोयल सोसायटी में बनने वाले जिनालय में मूलनायक के लिये श्री मुनिसुव्रत स्वामी प्रभु प्राप्त हुए। फिर तो समस्त उमरा संघ हर्षविभोर बन गया । अब तो प्रभुजी की प्रतिष्ठा भी धामधूम से सम्पन्न हो गयी है । For Personal and Private Use Only -- www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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