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प्रस्तावना
महत्त्वपूर्ण मानी गयी है। प्रसङ्गतः इस में केवली के कवलाहार की चर्चा (पृ.४७० से ४८१) भी विस्तार युक्त है। बाद में गाथा ३२-३३ में सम्यग्दर्शन की सम्यग्ज्ञानरूपता तथा सम्यग् ज्ञान में नियत सम्यग्दर्शनत्व, सम्यग्दर्शन के होने पर सम्यक् ज्ञान की वैकल्पिकता दर्शायी गयी है। उस के बाद गाथा ३४ से ४३ (अन्तिम) तक केवल उपयोग की सादि-अपर्यवसितता इत्यादि छोटे-मोटे विषयों की संक्षिप्त चर्चा है। महो० यशोविजयविरचित ज्ञानबिंदु में भी यह चर्चा है। ____ व्याख्याकार श्री अभयदेव सूरिजी भगवंत की व्याख्या बहुत ही विशद, गम्भीर एवं तलस्पर्शी है। उन की व्याख्या में कुछ पदार्थों का विशेष स्पष्टीकरण आदि मिलता है जो प्रशंसापात्र हैं । यथा १. पृ.५९ में (यतो न जैनस्य... वशात्) जैनों का ऐसा सिद्धान्त नहीं है कि एक व्यक्ति समवायतुल्य
किसी एक सम्बन्धस्थानीय शक्ति के प्रभाव से अनेक शक्तियों को धारण कर रखे। हमारे मत में तो एक व्यक्ति अनेकशक्ति आत्मक ही होती है। एवं शक्तियाँ भी एकव्यक्ति आत्मक
हैं, वह किसी अन्य शक्ति के प्रभाव से नहीं किन्तु उस के उत्पादक कारणों के प्रभाव से । २. (पृ.७६) 'जुगवं दो णत्थि उवओगा' नियुक्ति के अर्थ में कहा है - इन्द्रियजन्यज्ञान और मनोविज्ञान
की एक साथ उत्पत्ति का निषेध नहीं है किन्तु मानसिक दो विकल्पों की समकालीनता का
निषेध है। ३. (पृ.७७) गुण और पर्याय के लिये कहा है कि गुण सहभावी होते हैं और पर्याय क्रमभावी
होते हैं। ४. पृ.१८१ में कहा है – 'एक ज्ञान एक विषय में निर्णयरूप और अन्य विषय में अनिर्णयरूप'
- ऐसा एकान्तवाद में संगत नहीं होता। ५. पृष्ठ २०० में कहा है - हमारा मत यह है कि वे ही विशेष कथंचित् अन्योन्य समानपरिणाम
(सामान्यात्मक) को धारण करनेवाले हैं। ६. पृ.२४० में अवच्छेदक - अवच्छेद्य परिभाषा का प्रयोग है। ७. पृ.२६९ में मानस ज्ञान को अतीतानागतार्थग्राहि दिखाया है। तथा ‘मेरा भाई कल आयेगा'
इस प्रकार के अनागतार्थग्राहि प्रातिभ ज्ञान का उल्लेख है। ८. पृ.३२३ में कहा है कि इन्द्रियों में अर्थाधिगम के प्रति परम्परा से उपचरित साधकतमत्व का
निषेध नहीं है। तथा अनिन्द्रियजन्य प्रातिभ ज्ञान को प्रत्यक्षरूप दिखाया है। ९. पृ.३२५ में दर्शन और अर्थावग्रह का भेद दिखाया है। उपरांत, ईहा-अपाय-धारणा के लक्षण
दिखाये हैं। १०. पृ.४०० में मीमांसा श्लोकवार्त्तिक के अनुसार स्वरूप-पररूप से वस्तु की सद्-असदात्मकता
दिखायी है।
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