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________________ गाथा - ५ ४९ निवृत्ति:' इत्यपास्तम् यतश्च द्वितीयक्षणोत्पत्तिकाल एव प्रथमक्षणनिवृत्तिः तेनैकक्षणस्थायी भावो 'विनाश' - शब्देनोच्यते, अयं च भावरूपत्वात् साधनस्वभाव एव विनाशः, कार्योत्पत्तिकाले च निवर्त्तत इति कार्यभिन्नकालभावी। न च सर्वकालमस्य सद्भावः, भावस्याऽसत्त्वात् । यद्वा विनश्वरोऽयं भावः 'विनाशोऽस्य' इति द्वाभ्यां धर्मि-धर्मवाचकाभ्यामविनाशिव्यावृत्तस्यैवैकस्य भावस्य भेदान्तरप्रतिक्षेपाभ्यामभिधानाद् भाव एव नाश उच्यत इति । यत् पुनरिदमभिहितम् 'विधिरूपेण क्षणिकताऽत्र साधयितुं प्रस्तुतेति प्रतिषेधसाधिकाया 5 अनुपलब्धेरिहानधिकार इति, तत्, लिङ्गव्यापारविषयानभिज्ञ ( 1 ? ) ताख्यापनम् । यतो न लिङ्गं विधिमुखेन किञ्चित् प्रवर्त्तते, सर्वस्य समारोपव्यवच्छेदसाधकत्वे नैव व्यापारादिति कार्य-स्वभावहेत्वोरपि नानुपलब्धिरूपताव्यतिक्रमः । तेन परमार्थतः अनुपलब्धिरेवैको हेतुरिति सुगतसुताभ्युपग (तः ? ) मः । यदप्यभ्यधायि – (६-४) 'प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षावसितं भावानामक्षणिकत्वमिति क्षणध्वंसितापरिकल्पनमयुक्त' खण्ड - ३ यह 10 यह जो भी कहा था भिन्न नाश उत्पन्न होगा तो उस से भाव की निवृत्ति नहीं होगी अब निरस्त हो जाता है । कारण, नये क्षण के उत्पत्तिकाल में ही प्रथमक्षण निवृत्त होता है, अतः 'विनाश' का शब्दार्थ है एकक्षणस्थायी भाव । यह तो भावात्मक ही है अतः विनाश होने से साधनस्वभाव (यानी कारणस्वभाव) फलित होता है जो कि कार्योत्पत्तिकाल में निवृत्ति लेता है, अतः वह कार्य से भिन्नकाल भावी बन गया। इस प्रकार के ( कारणात्मक) विनाश का अस्तित्व सर्वकालीन होने की आपत्ति कैसे होगी जब कि वह भाव ही दूसरे क्षण में असत् है । अथवा, यह जो द्विविध प्रतीति होती है 'यह भाव विनाशी है' 'इस का (यह ) विनाश है' इन में भाव धर्मीतया और 'विनाश' धर्मतया प्रतीत होता है तो धर्मी (भाव) और धर्म विनाश के वाचक शब्दों के द्वारा आखिर तो अविनाशीव्यावृत्त एक ही भाव का भेदान्तर भाव विशेष) और उस के प्रतिक्षेप के द्वारा निरूपण किया जाता है उस से यही सिद्ध होता है कि प्रथमक्षण का भाव ही विनाश कहा जाता है। 1 यह जो कहा था (६-१७) की कल्पना करना निष्फल है ।' Jain Educationa International — - यह जो कहा था ( ६-१ ) 'बौद्धमतवालों को यहाँ विधिरूप से क्षणिकता की आनुमानिक सिद्धि अभिप्रेत हैं, अतः अनुपलब्धि हेतु को यहाँ अवकाश नहीं । ( स्वभावकार्य हेतु का निरसन तो पहले कर दिया था ) ' - यह तो लिङ्गसम्बन्धी व्यापार एवं विषय के अनभिज्ञता का ही प्रदर्शन है । कारण, सुगतपुत्रों का अभिमत ऐसा है कि कोई भी लिङ्ग (चाहे स्वभाव - कार्य या अनुपलब्धि) विधिमुख से साध्य के लिये कभी कुछ नहीं करते । लिङ्गमात्र का एक ही व्यापार है अक्षणिकत्व (यानी स्थायित्व ) आदि 25 के समारोप के व्यवच्छेद को भासित करना। कार्य एवं स्वभाव हेतु भी इस प्रकार अनुपलब्धि स्वरूप के बहिर्वर्त्ती नहीं। सत्त्व की अक्षणिक में अनुपलब्धि ही वास्तव में सत्त्वहेतु का परमार्थ है । एवं अग्निशून्य स्थान में धूमानुपलब्धि ही धूम हेतु का परमार्थ है वास्तव में अनुपलब्धि एकमात्र हेतु होता है यह बुद्धपुत्रों का मत समझना । - अक्षणिकत्व की प्रत्यभिज्ञा में अनुमानबाध ] 'भावों का अक्षणिकत्व जब प्रत्यभिज्ञा - प्रत्यक्ष से गृहीत है तब क्षणध्वंस यह भी संगत नहीं, प्रत्यभिज्ञा का प्रामाण्य असिद्ध होने से । देखिये For Personal and Private Use Only 15 20 30 www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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