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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १
एव कारणविनाशः तदा कार्य-कारणभावो न भवेत् यतः (?? कारणस्य विनाशः कारणोत्पाद: एव नाशः ??) इति वचनात् । एवं च कारणेन सह कार्यमुत्पन्नमिति प्राप्तम् । यदि च स एव नाशः प्रथमेऽपि क्षणे न सत्ता भावस्य स्याद् विनाशात्, तदैव लोके च भावनिवृत्तिर्विनाशः प्रतीतः न भाव एव । सर्वकालं च विनाशसम्भवात् सर्वदा भावस्य सत्त्वं स्यात् । अथ कारणोत्पादात् कारणविनाशो भिन्नः तदा 5 कृतकत्वस्वभावत्वमनित्यत्वस्य न भवे ( त्) । व्यतिरिक्ते च नाशे समुत्पन्ने न भावस्य निवृत्तिरिति कथं क्षणिकत्वम् ” [ ] इति, तन्निरस्तम् । यतो द्विविधो विनाश: सांव्यवहार्यः तात्त्विकश्च । भावनिवृत्तिरूपः प्रथमः भावरूपश्च द्वितीयः । ततो ( ? दो ) त्पन्नो भावः कार्यं करोति, कार्यकाले च कारणनिवृत्तिरूपो विनाशो लोकप्रतीत एव, नायं भावस्वभाव इष्यते, नापि कारणोत्पादादभिन्नो वा, नीरूपत्वात् । भेदाभेदप्रतिषेध एव केवलस्य क्रियते । उक्तं च [प्र० वा० ३ २७९]
भावे ह्येष विकल्पः स्याद् विधेर्वस्त्वनुरोधतः । । ” इति 'न व्यतिरिक्ते नाशे जाते क्षणरूपस्य भावस्य (I?) 'तुला के दो ध्रुवों का अवनमन - उन्नमन जैसे समकालीन होते हैं वैसे यदि कारणविनाश एवं कार्योत्पत्ति एक ही काल में मान लेंगे तो कार्य-कारणभाव घट नहीं पायेगा । ( पाठ अशुद्ध कारणविनाश एव कार्योत्पाद इति वचनात् ऐसे पाठ की कल्पना करे तो ) ऐसा कहा गया है कि कारणनाश और कार्योत्पत्ति
समकाल होने से एक ही है । ( तब, विनाश अहेतुक होने से कार्य भी अहेतुक हो जायेगा ।) कारणनाश 15 से कार्योत्पत्ति मानने पर कारणनाशात्मक कारण और कार्य की समकालोत्पत्ति मानना होगा। यदि कार्योत्पाद
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को ही विनाशात्मक मानेंगे तो प्रत्येक क्षणिक भाव विनाशात्मक हो जाने से प्रथमक्षण में भी कारणरूप से किसी भाव की सत्ता न बन सकेगी ( क्योंकि वह भी किसी का कार्य है ।) जब कि लोक तो भाव को नहीं किन्तु भावनिवृत्ति को ही नाश प्रतीत करते हैं । तथा विनाश और भाव को एक मानने पर विनाश शाश्वत होने से भाव की सत्ता भी सदा काल प्रसक्त होगी ।
यदि कहें कि कारणोत्पाद और कारणविनाश एक नहीं है, भिन्न हैं तो अनित्यत्व को कृतकत्वस्वभाव नहीं बोल सकते क्योंकि विनाश कृतक है अनित्य नहीं । तथा भावनाश को भाव से भिन्न स्वीकार करेंगे तो नाश का भाव के साथ (असत् का सत् के साथ) कोई सम्बन्ध न होने से नाश के द्वारा भाव की निवृत्ति नहीं होगी । अब क्षणिकत्व का क्या होगा ?”
यह कथन निरस्त हो जाता है। कारण सुनो ! विनाश की दो विधाएँ हैं सांव्यवहार्य और तात्त्विक । 25 पहला है भावनिवृत्तिस्वरूप । दूसरा है भावात्मक । वास्तविकता यह है कि उत्पन्न भाव कार्योत्पत्ति करता है । कार्योत्पत्ति काल में उस कारणात्मक भाव की निवृत्तिस्वरूप भाव सारा जगत् देखता है । निवृत्तिस्वरूप विनाश भावात्मक नहीं माना जाता, कारणोत्पाद से अभिन्न भी नहीं माना जा सकता क्योंकि वह नीरूप (= तुच्छ) है। अतः केवल भाव निवृत्ति रूप विनाश न तो भाव से भिन्न (स्वतन्त्र वस्तु ) है न तो भाव से अभिन्न है। प्रमाण वार्त्तिक ( ३- २७९ उत्तरार्द्ध) में कहा है
[ विनाश का शब्दार्थ एकक्षणस्थायि भाव 1
'विधि ( यतः ) वस्तु अधीन होती है (अतः ) भाव के लिये ही (भेद / अभेद के ) विकल्प हो सकते हैं”। अत एव,
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