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________________ खण्ड-३, गाथा-५ 10 कार्यक्रमाद्धि कारणक्रमः प्रतीयमानः कथं कार्यहेतुश्चलप्रतीतिर्भवतीत्यलमतिनिर्बन्धेनाऽज्ञप्रलापेषु । यदप्युक्तम् (५-६) - ‘असतोऽजनकत्वाद् न क्षणविशरारोः कार्यप्रसवः' इति, तदनभ्युपगमादेव निरस्तम्। यच्च (५-६) - ‘अविनष्टा(द्) द्वितीयक्षणव्यापारसमावेशवर्तिनः कार्यप्रभवाभ्युपगमे क्षणभङ्गभङ्गप्रसङ्गः' इत्यभिहितम्- तदप्यसंगतम् यतो यदि व्यापारसमावेशाद् भावाः कार्यनिर्वर्त्तका भवेयुस्तदा कार्योत्पादने द्वितीयक्षणप्रतीक्ष(?)या स्यादयो(?यं) दोषा(?षो) यावता प्रसवव्यापारसमावेशलक्षणो 5 दोषो (??) द्वितीयसमयप्रतीक्षाव्यतिरेकेणापि स्वमहिम्नैव कार्यक(?)रणे प्रवर्त्तन्ते एव, अन्यथा द्वितीयक्षणभाविव्यापारजननेऽप्यपरव्यापारसमावेशव्यतिरिकेणाऽप्रवृत्तेस्तत्रापि व्यापारान्तरसमावेशकल्पनातोऽनवस्थाप्रसक्तेः अपरापरव्यापारजननोपक्षीणशक्तित्वान्न कदाचनापि कार्यं कुर्युः। अथापरव्यापारनिरपेक्षा एवैकं व्यापारं नि(र)वर्तयन्ति, तथा सति कार्येण किमपराद्धं येनाद्यव्यापारनिरपेक्षास्तदेव न जनयन्ति ? पारम्पर्यपरिश्रमा(?मोऽप्ये)षामेवं परिहतो भवति । आदि की क्षणिकता का पता क्यों नहीं लग जाता ? जब कार्यों की क्रमिकता से कारणों की क्रमिकता स्पष्ट प्रतीत होती है, तब कार्यहेतु को चल यानी संशयग्रस्तप्रतीतिविषय कैसे कह सकते हैं ? आँख मुंद के कहते रहेंगे तो ऐसे अज्ञानीयों के प्रलापों के प्रति कुछ ध्यान देने की जरूर नहीं है। [क्षणिक भाव से व्यापार के विना कार्योत्पत्ति- शंका - उत्तर ] यह जो कहा था – (५-२२) 'असत् पदार्थ किसी का जनक नहीं होता, अतः क्षणभंगुर भाव से 15 कार्यजन्म नहीं हो सकता।' – इस कथन का अस्वीकार ही निरसन है। क्षणिक भाव को हम असत् नहीं मानते। तथा यह जो कहा है - (५-२३) 'क्षणिक भाव अविनष्ट रह कर दूसरे क्षण में व्यापाराविष्ट हो कर कार्य को जन्म दे सकता है ऐसा मानने पर तो वह द्वितीयक्षण में जीवंत रहने से क्षणिकवाद का भंग हो जायेगा' - तो यह गलत है। यदि हम माने कि भाव व्यापाराविष्ट हो कर ही कार्यजनन कर सकता है तो कार्योत्पत्ति के लिये द्वितीयक्षण प्रतीक्षादि दोष सावकाश हो सकते हैं, यावत् 20 कार्यानुकूलव्यापाराविष्टतास्वरूप दोष भी हो सकता है। किन्तु हम मानते हैं कि व्यापारावेश विना भी क्षणिक भाव स्वप्रभाव से ही कार्य निपजाते हैं उस में द्वितीयक्षण की प्रतीक्षा नहीं करते। प्रतीक्षा को मानेंगे तो द्वितीयक्षण में व्यापारावेश (= व्यापारजनन) के लिये और एक व्यापारावेश – जिस के विना उक्त व्यापार-जन्म नहीं होगा – मानना पडेगा, एवं एक एक व्यापारावेश के लिये नये नये एक एक व्यापारावेश की कल्पना करेंगे तो अनवस्था दोष प्रसंग होगा। दुष्फल यह होगा कि एक कारण को अपने कार्य करने 25 के लिये अवसर ही नहीं मिलेगा, क्योंकि वह व्यापार के व्यापार की परम्परा के उत्पादन में ही व्यग्र रहेगा, उस में ही उस की शक्ति क्षीण हो जायेगी। यदि कहें कि - 'कार्योत्पादन के लिये एक ही व्यापार के जनन की आवश्यकता रहेगी, अन्य अन्य व्यापार की अपेक्षा नहीं होगी' – तो यदि व्यापार के विना व्यापारोत्पत्ति हो सकती है तो कार्योत्पत्ति का क्या अपराध कि कारण आद्य व्यापार के विना उस को न कर सके। कारणों से अपने प्रभाव से कार्योत्पत्ति मान लेने पर व्यापारपरम्परा के सृजन 30 का व्यर्थ परिश्रम भी टल जायेगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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