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________________ ४४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ कार्यभेदस्येष्टत्वात् कार्यस्याप्यनेकसामग्रीजनितस्याऽनेकत्वात् तद्वैलक्षण्ये च तस्यापि विलक्षणत्वात् । तस्मात् न सत्तालक्षणस्य हेतोरनैकान्तिकता। नापि विशेषणलक्षणविरहः, प्रमाणनिश्चितस्य तन्मात्रानुबन्धस्य स्वभावहेतुलक्षणस्य सद्भावात् । ___ यदप्युक्तम् (५-५) 'कार्यहेतुप्रतिपाद्योऽपि प्रतिक्षणं ध्वंसो न भवति, क्षणिकत्वेऽक्षदृशोऽप्रवृत्तेः, 5 कार्य-कारणभावस्य च प्रत्यक्षानुपलम्भसाधनत्वात्' इति तदप्यसंगतम् । यतो यदि सर्वत्र प्रत्यक्षानुपलम्भसाधन एव कार्यकारणभावस्तदा चक्षुरादीनां स्वविज्ञानं प्रति कुतः कारणताप्रतिपत्तिः ? अथ तद्विज्ञानस्यान्येषु सत्स्वपि हेतुषु कादाचित्कतया तद्व्यतिरिक्तकारणान्तरसापेक्षत्वात् चक्षुरादीनां तत्र हेतुत्वमनुमीयते- स तीहापि न्यायः समानः । तथाहि-विषयेन्द्रियादिवशात् प्रतिक्षणविशरारुणि क्रमवन्त्युपजायमानानि ज्ञानानि तथाविधकारणप्रभवत्वमात्मनः सूचयन्तीति कथं (न) कार्यहेतुः क्षणध्वंसितां चक्षुरादीनां प्रतिपादयेत् ? 10 में नहीं लेता, ऐसा भावाऽभावानुगामि दीखता है वह है कार्य। और वे विशेष (क्षिति आदि) हैं उस के कारण। जब कारण और कार्य का यह सिद्धस्वभाव है तब, सत् कारणों में सत्त्व हेतु से अर्थक्रियासामर्थ्य सिद्ध हो जाने से अनैकान्तिकता दोष है कहाँ ? सामग्री को लेकर यदि उलटा ही कहा जाय - कि कारण भेद होने पर भी कार्यभेद नहीं होतातो यह गलत है, क्योंकि कार्यभेद का आधार कारणभेद भले न हो, सामग्रीभेद तो इष्ट ही है। अनेक 15 (यानी भिन्न भिन्न) सामग्री से (उदा० मिट्टी-चक्रादि और तन्तु-वेमादि से) जो कार्य (घट-पट) उत्पन्न होंगे वे अनेक यानी भिन्न ही होंगे। कारण, सामग्री विलक्षण होने पर कार्य भी विलक्षण ही होना चाहिये । इन से स्पष्ट है कि सत्तात्मक हेतु में अनैकान्तिकता दोष निरवकाश है। अत एव पहले (३१८-१४) जो कहा था कि स्वभावहेतु में विशेषलक्षण (साध्य का तन्मात्र अनुबद्ध) संगत नहीं है - वह भी निषेधार्ह है क्योंकि स्वभावहेतु का तन्मात्रअनुबन्धरूपलक्षण यहाँ सत्त्व हेतु में ऊपर चर्चित प्रमाण से 20 निश्चित है। [ कार्य-कारणभाव सिद्धि का आधार कौन ? ] पूर्वपक्षीने यह जो कहा था – (५-१८) कार्यहेतु से प्रसाधित प्रतिक्षणध्वंस की सिद्धि दुरुह है, क्योंकि क्षणिकभाव के प्रति इन्द्रियप्रत्यक्ष की प्रवृत्ति अशक्य है। प्रत्यक्षप्रवृत्ति नहीं होगी तो कार्य-कारणभाव ग्राहक प्रत्यक्ष/अनुपलम्भ प्रवृत्ति नहीं होगी।' – यह भी गलत है। कारण, यदि कार्य-कारणभावग्राहक को प्रत्यक्ष/ 25 अनुपलम्भाधीन ही सर्वत्र माना जायेगा तो चक्षुइन्द्रियादि प्रत्यक्ष गोचर न होने से प्रत्यक्ष/अनुपलम्भ के द्वारा स्वजन्य विज्ञान (चाक्षुष प्रत्यक्ष) के प्रति कारणता ग्रहण कैसे होगा ? यदि अनुमान किया जाय - 'अन्य सामग्रीअवयव प्रकाशादि हेतुओं के रहते हुए भी कभी चाक्षुष प्रत्यक्ष का उदय कदाचित् न होने के कारण, प्रकाशादि के उपरांत भी किसी अन्य कारण की सापेक्षता सिद्ध हो जाने पर, अनुमान से चक्षु आदि (अतीन्द्रिय) की कारणता सिद्ध हो सकती है।' तो हमारे पक्ष में भी यही न्याय समान है जिस 30 से क्षणिकता की या क्षणिक भाव के प्रति प्रत्यक्षप्रवृत्ति सिद्ध हो सकती है। कैसे यह देखो - विषय इन्द्रियादि योग से पल पल में नये नये क्षणिक ज्ञान क्रमशः उत्पन्न होते हैं, वे सजातीय (यानी क्षणिक) कारणों से जन्म लेते हैं यह अर्थतः सूचित हो जाता है। यहाँ क्षणिक विज्ञानरूप कार्य हेतु से ही चक्षु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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