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________________ खण्ड-३, गाथा-५ ३५ कार्यकारिणः, स्वयमकारकाणामपरयोगेऽपि तत्कारित्वाऽसम्भवात्। सम्भवे वा (ऽपर एव) परमार्थतः कार्यनिर्वर्त्तको भवेत्, स्वात्मनि तु कारकत्वव्यपदेशो विकल्पनिर्मित एव भवेत्। एवं च नास्यानुपकारिणो भावं कार्यमपेक्षेतेति तद्विकलेभ्य एव सहकारिभ्यस्तत् समुत्पद्येत। अथवा तेभ्योऽपि न भवेत् स्वयं तेषामप्यकारकत्वात्, पररूपेणैव कर्तृत्वाभ्युपगमात् । अतः सर्वेषां स्वयम(प?)कर्तृकत्वा(त्) पररूपेणाप्यकर्तृत्वात् सर्वथा कर्तृत्वोच्छेदतो न कुतश्चित् किञ्चिदुत्पद्येत। तस्मात् स्वरूपेणैव कार्यस्वभावाः कर्तारः इति न 5 कदाचित् तक्रियाविरतिरिति कुत एकार्थक्रियाप्रतिनियमस्वरूपमक्षणिकानां सहकारित्वम् ? 'सामग्रीजन्यस्वभावतया कार्यस्य तस्याश्चापरापरप्रत्यययोगरूपतयाऽयोग(गे) प्रत्येकं तक्रियास्वभावत्वेऽप्यनुत्पत्तिः' इति चेत् ? व्याहतमेतत्, यतोऽयमेकोपि क्रमभाविकार्योत्पादने समर्थः ततः कथमेषां भिन्नकालापरापरप्रत्ययप्रयोगलक्षणानेकसामग्रीजन्यस्वभावता ? एकेनापि तेन तज्जननसामर्थ्य बिभ्राणेन तानि जनयतन्मानि(?जनयितव्यानि) न ह्यन्यथा केवलस्य तज्जननस्वभावता सिद्ध्यति, तस्याः प्रा(कार्यप्रा)दुर्भावा- 10 अपना कार्य कुछ अंश से करेगा, बाद में दूसरा - इस तरह तथाविध (भिन्न भिन्न) क्रिया प्रसङगत करनेवाले भी भिन्न भिन्न काल में अपने सिर पर आये हुए काम करेंगे - तब ‘साथ रह कर ही कार्य करते हैं' इस प्रकार के सहकारिभाव का नियम युक्तियुक्त नहीं ठहरेगा। कारण, यदि समूह बनाकर कार्य करनेवाले भी अपने प्रातिस्विकरूप से ही कार्य करेंगे, न कि पररूप से। स्वयं अपने पाणि-पादादिस्वरूप से निष्क्रिय रह कर तो दूसरे के सहयोग से भी कोई कार्य कर सके यह असम्भव है। यदि सम्भवित मान ले, फिर 15 भी पर व्यक्ति ही वस्तुतः कार्यसम्पादक ठहरा, मूल कारण में तब ‘कारक' पन का निर्देश तो कल्पनाकल्पित ही हो गया। फलतः सिद्ध होगा कि कार्य किसी अनुपकारि भाव का मुहताज नहीं होता, क्योंकि उस से विरहित भी सहकारीवृन्द से कार्य तो निपजता है। अथवा तो यह कहिये कि सहकारीवृन्द से भी कार्य नहीं हो पायेगा, क्योंकि मूल कारक तो वे नहीं है, वे तो सीर्फ सहकारी हैं। सहकारी तो मूल कारण को सहकार करने से परतः यानी पररूपेण (अर्थात् गौण प्रकार से) ही कर्ता माने गये हैं। इस ढंग से 20 सोचा जाय तो स्वयं भी स्व-रूप से कर्ता नहीं, पर रूप से भी कर्ता नहीं, तो कर्तत्व मात्र का उच्छेद हो जाने से कुछ भी किसी से उत्पन्न नहीं होगा, जगत् कार्यशून्य प्रसक्त होगा। अब यह फलित होता है – कर्तृत्वोच्छेद दोष से बचने के लिये वस्तु (कार्य) स्वभाव ऐसा स्वीकारना पडेगा कि सब स्वरूप से ही कर्ता होते हैं। स्व-रूप से कर्त्ता यदि अक्षणिक होगा तो स्वतः सतत अपनी अपनी क्रिया करता रहेगा, फिर एक अर्थक्रिया प्रतिबद्धत्व कुछ अर्थ ही नहीं रखता, तो अक्षणिकों में सहकारित्व कैसे कहाँ 25 रहेगा ? [कार्य में सामग्रीजन्यस्वभावता का निरसन ] नित्यवादी :- कार्य का स्वभाव है सामग्री से पैदा होना। सामग्री क्या है ? मूल (= प्रधान) कारण के साथ अन्य अन्य (सामग्रीअन्तर्गत) निमित्तों का संयोग। क्षणिकवाद में ऐसा संयोग शक्य नहीं है। अतः प्रत्येक ( सामग्री अन्तर्गत) निमित्त में तत्तत् क्रिया करणस्वभाव रहते हुए भी कार्योत्पत्ति कभी नहीं होगी। 30 क्षणिकवादी :- इस कथन में परस्पर विरोध है। देखिये - जब एक एक कारण या निमित्त में क्रमिककार्यजननक्रियास्वभावरूप सामर्थ्य मौजुद है तो वे अपना कार्य करके ही रहेंगे, क्यों उन्हें भिन्न भिन्न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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