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________________ ३४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १ स न युक्तः 'अयमेव हि भेदो भेदहेतुर्वा विरुद्धधर्माध्यासः कारणभेदश्च' [ ]। ततश्चेन्न भेदो न क्वचिदप्ययं भवेत् अन्यनिमित्ताभावात् । 'प्रतिभासभेदात्' इति ( चेत् ) ननु प्रतिभासभेदोपीतरेतरप्रतिभासाभावरूपतया विरुद्धधर्माध्यासरूपतां नातिवर्त्तते, भेदे चातिशयस्य तदवस्थ एवासौ भाव इति पश्चादप्यकारकः पूर्वावस्थायामि(?ती)व। तस्मादेवातिशया (त्) कार्यस्योत्पत्तेस्तत्र भावे कारकव्यपदेशो विकल्परचित एव भवेत् । अथ द्वितीयो विकल्पोऽभ्युपगमविषयः सोऽपि न युक्तः, यतो न नित्यानामेककार्ये प्रतिनियमलक्षणं सहकारित्वमस्माभिरपनुयते किन्तु अक्षणिकत्वे प्राक् पश्चात् पृथग्भावसम्भवात् कार्यस्य तथा क्रियाप्रसंगेन । 'सहैव कुर्वन्ति' इति सहकारित्वनियमो न युक्तिसंगतो भवेत् । यतो न ति (ते) साहित्येऽपि पररूपेणैव [ सहकारी द्वारा विशेषाधान के विकल्प का निरसन ] प्रथम विकल्प युक्तियुक्त नहीं है । सहकारी यदि मूल कारण में किसी विशेष का आधान करेगा, 10 तो उस से मूल कारण को कुछ भी लाभ होनेवाला नहीं, क्योंकि वह विशेष तो मूल कारण से सर्वथा भिन्न अर्थ है, मूल कारण का उद्भव हो गया, बाद में जो मूल कारण का पश्चाज्जात कोई स्वभावविशेष निपजेगा, स्व से अथवा अन्य हेतु से, वह मूल कारण का स्वभाव नहीं बन सकता । सुविदित न्याय हैं कि 'जो विरुद्धधर्माध्यास होता है वही तो भेद अथवा भेदापादक हेतु है, अथवा कारणभेद भेदापादक होता है ।' यहाँ कारणभेद अथवा विरुद्धधर्माध्यास स्पष्ट है - प्रथम क्षण में अविशेषस्वभाव और दूसरे 15 क्षण में विशेष स्वभाव । अथवा मूल कारण के उत्पादक भिन्न हैं और विशेष के उत्पादक सहकारी हैं । इस प्रकार भेद के निमित्त होते हुए भी अगर मूल कारण और विशेष का भेद नहीं मानेंगे तो, तीसरा कोई निमित्त न होने से कहीं भी भावों में भेद न रहने से अभेदवाद प्रसक्त होगा । प्रश्न :- तीसरा निमित्त क्यों नहीं है ? है, प्रतिभासभेद से भी वस्तुभेद होता है ( जो कि मूल कारण एवं विशेष में न होने से यहाँ भेदापादन नहीं हो सकता ।) उत्तर :- अरे ! प्रतिभासभेद क्या है ? अन्योन्य प्रतिभासाभाव यही है प्रतिभासभेद । वह परस्पर अभावरूप होने से विरुद्ध धर्माध्यासरूप ही तो हुआ । इस से मूल कारण और विशेष में प्रतिभासभेदप्रयुक्त भेद जब सिद्ध है तो भिन्न विशेषरूप अतिशय होने पर भी मूल कारण तो तदवस्थ (यानी निष्क्रिय) ही रह गया, तो जैसे सहकारीविरह में पहले वह अकारक था वैसे पीछे भी अकारक ही बना रहेगा । सारांश, सहकारीक्रमप्रयुक्त क्रम से अक्षणिक पदार्थ में विशेषाधानमूलक अर्थक्रिया करण शक्य नहीं । उपरांत 25 जिस अतिशय की प्रतीक्षा थी उस से ही कार्य सम्पन्न हो जाने पर, मूलकारणात्मक भाव में 'कारक' शब्द का प्रयोग कल्पनाकल्पित ही रह गया। दूसरा विकल्प है एक कार्य के प्रति प्रतिबद्धता के जरिये क्रम से कार्यकरण वह भी युक्तियुक्त नहीं । [ एककार्यप्रतिबद्धतारूप सहकारित्व अघटित ] दूसरा विकल्प था एककार्यप्रतिबद्धता का वह भी युक्तिसंगत नहीं । देखिये चक्षु आदि की तरह 30 सहकारिवृन्द एककार्य करने के लिये बद्धकक्ष बन जाय यह नित्य भावों में सम्भव है, हम उस का अपलाप नहीं करते, किन्तु भावों के अक्षणिकत्व पक्ष में अनेक सहकारीयों में अन्योन्य पृथक्ता होने से कोई पहले ་. सकलेयं चर्चा प्रमेयकमलमार्त्तण्डे पृष्ठ ४ मध्येऽनुसन्धेया । 5 20 Jain Educationa International - For Personal and Private Use Only — www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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