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________________ खण्ड - ३, गाथा - ५ २९ तथाहि - यथा क्रमेण यौगपद्येन वा स्वकार्यमुत्पादयन्तो भावाः अध्यक्षविषयतामवलम्बन्ते तदेतररूपविवेकिनो ज्ञानात्मनि तथैव प्रतिभासन्ते यतः स्वस्वभावव्यवस्थितयो नात्मानं परेण मिश्रयन्ते भावा: तस्यापरत्वप्रसङ्गात्, तथा च सर्वत्र सर्वस्योपयोगादिप्रसङ्गः । न चाऽसाधारणरूपाध्यासितेषु प्रतिभासमानेषु तेषु तत्राऽसतो रूपस्यावभासो युक्तः, अहेतुकतापत्तेः । एवं चाक्षसंविदां प्रतिनियतविषयता प्रमाणपरिदृष्टा हीयेत, अहेतुकत्वे प्रतिभासस्य विषयान्तरावभासनप्रसक्तेः । अक्षस्य नियामकत्वेऽप्यविद्यमानाऽनुकारणे (रेण ) 5 न संविद्वशादर्थात्म(1)नः स्वरूपमासादयेयुरिति नियतार्थाध्यवसायतः प्रवृत्तानां नार्थक्रियाप्राप्तिः स्यात् मरीचिकादिषु जलाद्य(?ध्य )वसायिनामिव । नापि सुख-दुःख - प्राप्ति - परित्यागौ स्यातामिति क्रमवत्कार्यसामर्थ्यादीयमानमध्यक्षं तद्रूपमेवानुकुर्वत् इतररूप ( 12 ) प्रतिभासविविक्ततया स्वसंवेदनेन संवेद्यमानं यथानुभवं पाश्चात्त्यं विकल्पद्वयं जनयति । तत एवं विभागः सम्पद्यते 'क्रमभावि तत् कार्यं नाक्रमम्' इति । तस्मात् [ क्रम - यौगपद्य से अन्य प्रकार के अभाव की प्रसिद्धि ] कैसे यह देखिये जैसे: घटादि भाव क्रमशः या एकसाथ अपने अपने कार्य को उत्पन्न करते हुए प्रत्यक्षगोचर बनते है, वैसे ही प्रत्यक्षज्ञान में वे ही घटादि स्वेतर पटादिभावव्यावृत्तरूप से भी प्रतिभ होते ही हैं । स्वेतरभाव से मिश्रतया भावों का प्रतिभास कभी नहीं होता, अतः अपने स्वभाव में तन्मयीभूत भाव अपने को अन्य ( व्यावृत्त) भाव से मिश्रतया भासित नहीं होने देते । अन्यथा, अन्य भाव से मिश्रण होगा तो (घटादि) भावों में पररूपता ( पटादिसर्वरूपता) का अनुवेध प्रसक्त होगा। नतीजतन एक ही भाव 15 सर्वभावरूप हो जाने पर सर्व कार्यों में उसी एक का ही उपयोग आदि प्रसक्त होगा । इस तरह सभी कार्यों के लिये सभी भाव कारण बन बैठेंगे। यह युक्तिसंगत भी नहीं है कि अपने असाधारणस्वरूप से आश्लिष्ट होकर प्रतिभासगोचर होनेवाले घटादि भावों में अन्य भावों (पटादि) के स्वरूप का भी, जो कि घटादि में असत् हैं, प्रतिभास किया जा सके। यदि ऐसा मान लेंगे तो असत् (पटादि) स्वरूप के प्रतिभास से आश्लिष्ट घटादिभाव प्रतिभास में निर्हेतुकता का प्रसञ्जन होगा, क्योंकि सर्वभावापन्नरूप से प्रतिभास की 20 कोई कारण सामग्री नहीं होती । तब तो इन्द्रियकृतसाक्षात्कारों में जो प्रतिनियतविषयता प्रमाणसिद्ध है उस की हानि होगी। कारण, विना निमित्त ही सर्वप्रतिभास हो जाने पर स्व-पर सभी विषयों का अवबोध हो जाने से प्रतिनियत विषयता कैसे रहेगी ? - - [ सर्वभाव स्व-पर सर्वस्वरूप मानने पर क्षतियाँ ] यद्यपि जिस भाव से इन्द्रिय का संनिकर्ष होगा वही भाव संवेदित होगा ऐसा आपाततः नियामक 25 मान लेने पर भी, सर्व भाव स्वपरसर्वरूप होने के कारण किस के साथ इन्द्रियसंनिकर्ष है किस के साथ नहीं इस का स्पष्ट भानरूप अनुकार (= नियमन) के न होने से, संवेदन के आधार से अर्थस्वभावों का रूप निश्चित नहीं हो सकेगा। फलतः प्रमाता प्रतिनियत जलरूप अर्थ को दिमाग में रख कर पीने की कोशिश करेगा किन्तु जलमिश्र अग्निरूपता के कारण दाह प्रसक्त होने से तृषाशमनरूप अर्थक्रिया की उपलब्धि नहीं होगी। उदा० मरीचिका में जलप्रतिभास करनेवाले को जल की प्राप्ति नहीं होती। इसी प्रकार 30 सुख हेतु के अध्यवसाय से न तो सुखप्राप्ति होगी, दुःखहेतु के अध्यवसाय से न तो दुःख का परित्याग हो सकेगा। Jain Educationa International 10 For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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