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________________ खण्ड-३, गाथा-५ २३ क्रमस्तु पूर्वापरभावः। स च क्रमिणामभिन्नः एकप्रतिभासश्च तत्प्रतिभासः। अथैकप्रतिभासानन्तरमपरस्य प्रतिभासः क्रमप्रतिभासः न त्वेकस्यैवातिप्रसङ्गात् । एवमेतत्, किन्तु यदैकप्रतिभास: न तदा परस्य, तदा तत्प्रतिभासे योगपद्यप्रतिभासप्रसक्तेः । तस्मात् क्रमिणोः पूर्वापरज्ञानाभ्यां ग्रहणे तदभिन्नक्रमोऽपि गृहीत एव । केवलं पूर्वानुभूतपदार्थाऽऽहितसंस्कारप्रबोधात् ‘इदमस्मादनन्तरमुत्पन्नम्' इत्यादिविकल्पप्रादुर्भावे क्रमो गृहीत इति व्यवस्थाप्यते। क्रम(?मि)णोप्रेहेऽपि कथञ्चिदानुपूर्व्या विकल्पानुत्पत्तो क्रमग्रहव्यवस्थापनाऽयोगात् । अत 5 एव क्रमिणामेकग्रहेऽपि न क्रमग्रहो व्यवस्थाप्यते। ___अपि च कथं कालाभ्युपगमवादिनोऽपि क्रमग्रहः सर्वकार्याणामेककालत्वात् ? न च भिन्नकालकारणोपाधिक्रमात् कार्यक्रमो युक्तः, कालस्याऽभिन्नत्वेनाभ्युपगमात् (न) तद्योगात् भावानां क्रमसद्भाव इति। न च पूर्वापररूपत्वात् ‘कालः क्रमवान्' इति वक्तव्यम्, यतस्तस्यापि यद्यपरकालापेक्षः क्रमः तदाऽनवस्थाप्रसक्तिः । अथ स्वरूपेण तस्य क्रमः, तथा सति कार्याणामपि बहूनामसहायानां क्रमो भवेत् । अस्माकं तु लोकप्रतीत्या 10 प्रत्यक्षसिद्ध है। कैसे यह देखिये - यौगपद्य का अर्थ है पदार्थों का (कालिक) सहभाव । क्रम का अर्थ है (कालिक) पूर्वापरभाव । क्रमिक भावों का पूर्वापरभाव क्रमिकों से अभिन्न ही होता है। किसी एक क्रमिकभाव का प्रतिभास क्रमप्रतिभासरूप ही होता है। शंका :- अरे ! एक का प्रतिभास ही क्रमप्रतिभास कैसे हो सकता है ? फिर भी मानेंगे तो एकप्रतिभास से सारे जगत् का प्रतिभास मानना पडेगा। अतः एक भाव के प्रतिभास के अनन्तरक्षण में दूसरे भाव 15 का प्रतिभास - इसे ही क्रम-प्रतिभास मानना पड़ेगा। उत्तर :- ठीक है आप की बात। लेकिन जब एक का प्रतिभास जिस काल में होता है उस काल में दसरे का नहीं होता - यही उस का मतलब है। अगर एक ही काल में दोनों का प्रतिभास होता तब तो प्रतिभासों में समकालीनता की प्रसक्ति होगी। हम कहना चाहते हैं कि जब पूर्वापरभावापन्न ज्ञानों से क्रमिकों का ग्रहण होगा, तभी (न कि किसी एक का) उन दो से अभिन्न क्रम भी गृहीत हो जाता 20 है - यह निश्चित बात है। यदि क्रमिकों का ग्रहण होने पर भी क्रमशः उन के पीछे संयोगवश विकल्पों का जन्म नहीं होगा, तो क्रमग्रहण का निश्चय भी हो नहीं पायेगा। हमने इसी लिये स्पष्ट किया है कि क्रमिक भावों में किसी एक का ग्रहण होगा (न कि पूर्वापरभाव से दोनों का) तो भी क्रमग्रह का निश्चय नहीं होगा। [ स्वतन्त्रकालतत्त्ववादी के मत में क्रमग्रहण प्रश्नग्रस्त ] और एक प्रश्न है - कालतत्त्व स्वीकारने पर भी वह एक तत्त्व स्वरूप होने से (अपने में कोई स्वतः भेद न होने से) सकल कार्यों में क्रम का बोध कैसे होगा ? यदि कहें कि - ‘अतीतादिभेदगर्भित कालरूप कारणात्मक उपाधि भेदों के क्रम से कार्यों में भी क्रम घटेगा।' – वह अयुक्त है, क्योंकि काल को तो आप अखण्ड एकद्रव्यरूप भेदविहीन मानते हैं फिर भिन्नकालोपाधि का सम्भव कैसे ? फिर उस के योग से भावों का क्रम भी कैसे घट सकता है ? यदि कहें कि - पूर्वापरभावगर्भित होने से काल 30 भी क्रमिक है - तो यह कथन व्यर्थ है, क्योंकि काल तो अखण्ड एक होने से उस में कोई पूर्वापरभाव हो नहीं सकता, तब और कोई उपाधिभूत अन्य काल ढूँढना पडेगा जिस के सांनिध्य से काल में पूर्वापर 25 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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