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________________ खण्ड-३, गाथा-५० ३६९ एतदेवाह(मूलम्-) ण य बाहिरओ भावो अब्भंतरओ य अत्थि समयम्मि। णोइंदियं पुण पडुच्च होइ अब्भंतरविसेसो।।५०।। आत्म-पुद्गलयोरन्योन्यानुप्रवेशाद् उक्तप्रकारेण अर्हत्प्रणीतशासने न बाह्यो भावः अभ्यन्तरो वा सम्भवति, मूर्ताऽमूर्तरूपादितयाऽनेकान्तात्मकत्वात् संसारोदरवर्तिनः सकलवस्तुनः । 'अभ्यन्तरः' इति 5 व्यपदेशस्तु नोइन्द्रियं = मनः प्रतीत्य, तस्यात्मपरिणतिरूपस्य पराऽप्रत्यक्षत्वात् शरीर-वाचोरिव। न च शरीरात्मावयवयोः परस्परानुप्रवेशात् शरीरादभेदे आत्मनोपि तद्वत् परप्रत्यक्षताप्रसक्तिः; इन्द्रियज्ञानस्याशेषपदार्थस्वरूपग्राहकत्वायोगात् इत्यस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वात्। अत: 'शरीरप्रतिबद्धत्वमात्मनो न भवति अमूर्त्तत्वात्' अत्र प्रयोगे हेतुरसिद्धः । यदि चात्मपरिणतिरूपमनसः शरीरादात्यन्तिको भेद: स्यात् तद्विकाराऽविकाराभ्यां शरीरस्य तत्त्वं न स्यात्, तदुपकारापकाराभ्यां वात्मनः सुख-दुःखानुभवश्च न भवेत्, 10 किन्तु दूसरे भी ऐसे निमित्त हैं जिन के आधार से दूसरे ढंग से बाह्य और अभ्यन्तर ऐसा विभाग जिन्दा रहेगा ।।४९ ।। [जैन दर्शन में न कुछ बाह्य न अभ्यन्तर ] अवतरणिका :- पूर्वोक्त बाह्य-अभ्यन्तर की स्पष्टता करते हैं - गाथार्थ :- सिद्धान्त में न कुछ बाह्य है न कोई अभ्यन्तर भाव है। फिर भी नोइन्द्रिय (= मन) 15 को लेकर 'अभ्यन्तर' विशेष होता है।।५०।। व्याख्यार्थ :- अरिहंत प्रभु के प्रकाशित शासन में आत्मा और पुद्गल (= जड) का अन्योन्य अनुप्रवेश पूर्वोक्तप्रकार से प्रसिद्ध है अत एव न कोई बाह्य भाव संभव है न तो अभ्यन्तर । कारण :- संसारान्तर्गत सकल चीज-वस्तु मूर्त्त-अमूर्त इत्यादिरूप होने से अनेकान्तमय होती है। प्रश्न :- लोक में 'अभ्यन्तर' (और बाह्य) ऐसा विशेष यानी व्यवहार कैसे होता है ? कौन 20 सा निमित्त है ? उत्तर :- मन को जैनदर्शन में नोइन्द्रिय कहा गया है, वह मन क्या है - आत्मा की परिणति है। ऐसा मन अन्य लोगों को प्रत्यक्ष नहीं होता, शरीर और वचन तो अन्य लोगों को प्रत्यक्ष होता है। मतलब इस मन के आधार पर बाह्य-अभ्यन्तर भेद व्यवहृत होता है। [देहाभिन्न आत्मा की परप्रत्यक्षतापत्तिनिरसन ] 25 शंका :- यदि शरीर और आत्मा के प्रदेशों अन्योन्य संमिश्र है तो देह से अभिन्न आत्मा का भी देहवत् अन्य लोगों को प्रत्यक्ष क्यों नहीं होगा ? उत्तर :- नहीं, प्रत्यक्ष इन्द्रियज्ञान में इतनी अमर्यादित शक्ति नहीं होती की वह सकल पदार्थों का साक्षात्कारी हो सके। इस तथ्य का निरूपण अग्रिम खंड में किया जानेवाला है। (इन्द्रियप्रत्यक्ष Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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