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________________ ३६८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ 15 एतदेवाह(मूलम्-) एवं 'एगे आया एगे दंडे य होइ किरिया य।' ___ करणविसेसेण य तिविहजोगसिद्धि वि अविरुद्धा ।।४९ ।। एवं इत्यनन्तरोदितप्रकारेण मनो-वाक्-कायद्रव्याणामात्मन्यनुप्रवेशाद् आत्मैव न तद्व्यतिरिक्तास्ते इति 5 तृतीयाङ्गकस्थाने 'एगे आया' [स्थानांग] इति प्रथमसूत्रप्रतिपादितः सिद्धः एक आत्मा एको दण्ड: एका । क्रियेति भवति मनो-वाक्-कायेषु दण्डक्रियाशब्दौ प्रत्येकमभिसम्बन्धनीयौ करणविशेषेण च मनो-वाक्कायस्वरूपेणात्मन्यनुप्रवेशावाप्तत्रिविधयोगस्वरूपत्वात् त्रिविधयोगसिद्धिरपि आत्मनः अविरुद्धैवेति एकस्य सतस्तस्य त्रिविधयोगात्मकत्वाद् अनेकान्तरूपता व्यवस्थितैव । न चान्योन्यानुप्रवेशाद् एकात्मकत्वे बाह्याभ्यन्तरविभागाभाव इति अन्तर्हर्ष-विषादाद्यनेकविवर्तात्म10 कमेकं चैतन्यम् बहिर्बाल-कुमार-यौवनाद्यनेकावस्थैकात्मकमेकं शरीरमध्यक्षतः संवेद्यत इत्यस्य विरोधः बाह्याभ्यन्तरविभागाभावेऽपि निमित्तान्तरतः तद्व्यपदेशसम्भवात् ।।४९ ।। एवं ज्ञानादि का अन्योन्यप्रवेश संगत होने पर कथंचिद् एकत्व-अनेकत्व, मूर्त्तत्व-अमूर्त्तत्व अभेदभाव से सिद्ध होते हैं।।४८।। [ स्थानांग सूत्र कथित आत्मा आदि के एकत्व का समर्थन ] अन्योन्यप्रवेश ही अधिक स्पष्ट करते हैं - गाथार्थ :- उक्त प्रकार से एक आत्मा, एक दंड, एक क्रिया करणविशेष से त्रिविधयोगसिद्धि भी निर्विरोध है।।४९ ।। व्याख्यार्थ :- पूर्वसूत्रोक्त प्रकार से मन-वचन-काया द्रव्यों का भी आत्मा में अनुप्रवेश होने से वे द्रव्य और आत्मा एक ही है जुदा नहीं है। अत एव तीसरे अंग-आगम स्थानांग में प्रथमसूत्र 20 से प्ररूपित एक आत्मा. एक दंड, एक क्रिया इस प्रकार से सभी का अन्योन्य एकत्व सिद्ध होता है। यहाँ मन-वचन-काया के साथ दण्ड और क्रिया जोड कर मनदंड वचनदंड कायदंड, मनःक्रिया वचनक्रिया कायक्रिया ऐसा शब्दवृंद समझ लेना। एकत्व सिद्ध होने से, मन-वचन-कायात्मक करणविशेष रूप से आत्मा में अनुप्रवेश होने पर योगत्रयरूपता प्राप्त होने से आत्मा की त्रिविधयोगरूपता भी निर्विरोध सिद्ध होती है। फलतः एक सत् आत्मा की योगत्रयरूपता के द्वारा अनेकान्तरूपता निश्चित 25 होती है। प्रश्न :- अन्योन्यानुप्रवेश के जरिये कायादि के साथ एकात्मकता का स्वीकार करने पर, बाह्यअभ्यन्तर ऐसा जो पदार्थभेद है उस का लोप हो जायेगा। यह स्पष्ट प्रत्यक्ष संवेदन होता है कि भीतर में हरख-शोक आदि अनेक विवों से अनन्य एक ही चैतन्य है और बाहर में बाल-कुमार यौवन आदि अनेक दशाओं में अनन्य एक शरीर है। इस प्रकार के भेद के साथ एकात्मकता का 30 विरोध प्रसक्त क्यों नहीं होगा ? उत्तर :- बाह्य-अभ्यन्तर विभाग, उपरोक्त एकात्मकता के साथ विरोध होने से भले शून्य हो जाय Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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