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________________ खण्ड - ३, गाथा- ४५ एकत्वव्यवहारप्रतिपत्तिनिराकृतत्वादिति भेदाभेदात्मकं तत्त्वमभ्युपगन्तव्यम् अन्यथा सकलव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिः । । ४४ । एवमभेदभेदात्मकस्य पुरुषतत्त्वस्य यथा अतीतानागतदोष-गुणनिन्दाभ्युपगमाभ्यां सम्बन्धः तथैव भेदाभेदात्मकस्य तस्य सम्बन्धादिभिर्योग इति दृष्टान्त - दान्तिकोपसंहारार्थमाह(मूलम् - ) जाइ-कुल- रूव-लक्खण- सण्णा-संबंधओ अहिगयस्स । बालाइ भावदिट्ठविगयस्स जह तस्स संबंधो । । ४५ । । प्रतिनियतपुरुषजन्यत्वम्, रूपं = चक्षुर्ग्राह्यत्वलक्षणम्, लक्षणं प्रतिनियतशब्दाभिधेयत्वम् एभिर्य: सम्बन्धः = तदात्मपरिणामः, ततस्तमाश्रित्य अधिगतस्य ज्ञान ( ? )स्य तदात्मकत्वेनाभिन्नावभासविषयस्य, यद्वा सम्बन्धो = जन्यजनकभाव:, एभिरधिगतस्य तत्स्वभावस्यैकात्मकस्येति यावत् बालादिभावैर्दृष्टैर्विगतस्य तैरुत्पादविगमात्मकस्य तथाभेद- 10 जातिः पुरुषत्वादिका, कुलं तिलकादि सुखादि सूचकम्, संज्ञा = = = = एकान्त भेद भी नहीं है क्योंकि वह एकत्वव्यवहार या प्रतीति से पडेगा कि तत्त्व भेदाभेदात्मक है, नहीं मानेंगे तो भेद - अभेद प्रयुक्त सकल होगा । ।४४ ।। भावी के बीच अत्यन्त अभेद होने पर संगत नहीं हो सकता । उत्तरार्ध में यही कहा है विभक्त पद में विभक्त का अर्थ है भेद, 'जुज्जइ विभत्ते' इस वाक्यांश में बीच में अकारक्षेप ( अवग्रह ) समझ कर व्याख्याकार कहते हैं कि यदि भेदाभाव यानी वर्त्तमान- भावि अवस्था में एकान्त अभेद होगा तो युवावस्था अचलस्वरूप रहने से वृद्धावस्था में सुखी बनने के लिये सुख साधक गुणों ( उत्साहादि ) के लिये प्रयत्न करने की जरूर नहीं रहती । सारांश, सिर्फ (एकान्त) अभेद कोई तत्त्वभूत नहीं है 15 क्योंकि कथंचिद् भेदप्रसाधक व्यवहार से या प्रतिभास से वह बाधित है। ३५९ Jain Educationa International [ दृष्टान्त और दान्तिक का उपसंहार ] अवतरणिका :- उक्त प्रकार से, जिस तरह भेदाभेदात्मक पुरुषतत्त्व का भूत- भावि दोषों की निंदा के साथ और गुणों के अंगीकार के साथ सम्बन्ध युक्तियुक्त है वैसे ही भेदाभेदात्मक पुरुष का सम्बन्धादि के साथ भी योग सयुक्तिक है इस दृष्टान्त-दान्तिक के उपसंहार में अब कहते हैं गाथार्थ :- जाति-कुल- रूप- लक्षण -संज्ञाओं के साथ किसी सम्बन्ध से ज्ञात बालादि दृष्ट भावों का जैसा सम्बन्ध होता है वैसा विगत का भी सम्बन्ध होता है । । ४५ ।। बाधित है। अतः मानना व्यवहारों का लोप प्रसक्त For Personal and Private Use Only 5 20 व्याख्यार्थ :- जाति यानी पुरुषत्वादि सामान्य, कुल यानी व्यक्तिविशेष पुरुष से निष्पन्न संतान, रूप जो कि नेत्रवेद्य होता है, लक्षण यानी सुखादि सूचक तल आदि देहचिह्न, संज्ञा का मतलब है कि किसी नियतशब्द से वाच्यत्व, इन सभी से जो तदात्मकपरिणामरूप यानी तादात्म्यरूप सम्बन्ध के आश्रय से ज्ञात होनेवाला अर्थात् तदात्मकरूपतया अभेदावभास का जो विषय उस का जैसा जन्यजनकभावरूप सम्बन्ध होता है; अथवा जाति से लेकर सम्बन्ध, उन से जो अधिगत एकात्मक 30 वस्तुस्वभाव है उस का जैसे भेदाभेद परिणामरूप सम्बन्ध होता है, वैसे दृष्ट बालादिभावों से जो 25 www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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