SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ __प्राप्तयौवनगुणः पुरुषो लज्जते बालभावसंवृत्तात्मीयानुष्ठानस्मरणात् 'पूर्वमहमप्यस्पृश्यसंस्पर्शादिव्यवहारमनुष्ठितवान्' यथा इत्युदाहरणार्थो गाथायामुपन्यस्तः यथैव ततोऽतीत-वर्तमानयोरेकत्वमवसीयते । करोति च गुणेषु = उत्साहादिषु प्रणिधानमैकाग्र्यम् अनागतं यत् सुखं तस्योपधानं = प्राप्तिस्तस्यै तदर्थम् 'मयैतस्मात् सुखसाधनात् सुखमाप्तव्यम्' इति। यतश्चैवमतोऽनागत-वर्तमानयोरैक्यम् ।।४३ ।। अत्रापि मते यथावस्थितवस्तुरूपप्ररूपणा न प्रतिपूर्यत इति सूत्रान्तरेणाह(मूलम्-) ण य होइ जोव्वणत्थो बालो अण्णो वि लज्जइ ण तेण । ___ण वि य अणागयवयगुणपसाहणं जुज्जइ विभत्ते ।।४४ ।। न च भवति यौवनस्थः पुरुषो बालः अपि त्वन्य एव, अन्योपि न लज्जते बालचरितेन पुरुषान्तरवत् तेनाऽनन्यः। नाप्यनागतवृद्धावस्थायां सुखप्रसाधनार्थमुत्साहस्तस्य युज्यते अत्यन्ताभेदे । एतदेवाह- विभक्त 10 इति विभक्तिर्भेदः। अकारप्रश्लेषाद् अविभक्ते भेदाऽभावेऽविचलितस्वरूपतया तत्प्रसाधकगुणयत्नाऽसम्भवात्। तस्मान्नाऽभेदमात्रं तत्त्वम् कथंचिद्मेदव्यवहतिप्रतिभासबाधितत्वात्। नापि भेदमात्रम् व्याख्यार्थ :- यौवनवयारूढ पुरुष बाल्यकाल की स्वकीय चेष्टाओं के स्मरण से लज्जित होता है 'अरे ! शैशव में मैंने अस्पृश्य मल-मूत्र में हाथ-अंगुलियाँ डालने का पराक्रम किया था !' मूल गाथा में 'यथा' पद से इस लज्जा का उदाहरण सूचित कर के कहना यह चाहते हैं कि भूतकालीन 15 बाल एवं वर्तमान युवा एक ही है, पृथक् नहीं। तथा वही पुरुष युवावस्था में भविष्यकालीन सुखप्राप्ति के लिये उत्साहादि गुणों में एकाग्रता - तन्मयता से दत्तचित्त बन जाता है, उदा० ‘मुझे इस सुखोपाय से सुख प्राप्त करना है।' यहाँ वर्त्तमान और भविष्यत्पुरुष का ऐक्य ध्वनित होता है। (यह द्रव्यार्थिक नय है वह भी कैसे अनुचित है वह आगे दिखायेंगे) ।।४३ ।। [बाल-युवा-वृद्ध में एकान्त अभेद का निषेध ] 20 इस उदाहृत एकान्त द्रव्यार्थिक नय में भी यथार्थवस्तुप्ररूपणा की आशा पूर्ण नहीं होती, इस तथ्य का दिग्दर्शन ४४ वे गाथासूत्र में करते हैं - गाथार्थ :- जो युवावस्थाशाली है वह बाल नहीं है, जुदा होने पर भी वह उस (बालचरित) से भी (वर्तमान में) शरमींदा नहीं हो जाता। अविभक्तदशा में भावी गुणों का प्रसाधन भी युक्त नहीं है।।४४ ।। 25 व्याख्यार्थ :- स्पष्ट दिखता है कि यौवनवर्ती पुरुष अब बालक नहीं है किन्तु भिन्न है। यद्यपि भिन्न है फिर भी अनन्य = अभिन्न है, इसी लिये अपने को युवा समझने वाला अपने ही बालचरित से अन्यपुरुष (बालक) की तरह वह शरमींदा नहीं हो जाता। (यहाँ ऐसा अर्थ सुसंगत लगता है कि (देवदत्त) युवान पुरुष यज्ञदत्त की तरह वह अपने बालचरित से अब लज्जित नहीं होता। अतः वह बाल से भिन्न है। व्याख्याकार ने मूलगाथागत 'तेन' शब्द के साथ 'अनन्यः' ऐसी पूर्ति की है। 30 किन्तु भूतपूर्वसम्पादकयुगल ने यहाँ 'तेनान्यः' ऐसा पाठान्तर उद्धृत किया है वह ठीक लगता है।) तथा भाविवृद्धावस्था में सुखी बने रहने के लिये जो वर्तमान में उत्साह है वह भी वर्त्तमान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy