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________________ खण्ड-३, गाथा-४१ ३५५ द्रव्यार्थात् सामान्यलक्षणान्निर्गतपर्यायाभिधायकत्वात्- समभिरूढस्य पर्यायभेदभिन्नार्थत्वात्- एवंभूतस्यापि विवक्षितक्रियाकालार्थत्वात् लिङ्ग-संज्ञा-क्रियाभेदेन भिन्नस्यैकशब्दाऽवाच्यत्वात्। शब्दादिषु तृतीयः, प्रथमद्वितीयसंयोगे चतुर्थः, तेष्वेव चानभिधेयसंयोगे पञ्चम-षष्ठ-सप्तमा वचनमार्गा भवन्ति। ___अथवा प्रदर्शितस्वरूपा सप्तभंगी संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्रेष्वेवार्थनयेषु भवतीत्याह- एवं सत्तवियप्पो इत्यादिगाथाम्। अस्यास्तात्पर्यार्थः - 5 __ अर्थनय एव सप्त भङ्गाः, शब्दादिषु त्रिषु नयेषु प्रथम-द्वितीयावेव भङ्गौ । यो ह्यर्थमाश्रित्य संग्रहव्यवहार-ऋजुसूत्राख्या प्रत्ययः प्रादुर्भवति सोऽर्थनयः अर्थवशेन तदुत्पत्तेः अर्थं प्रधानतयासौ व्यवस्थापयतीति कृत्वा । शब्दं तु स्वप्रभवमुपसर्जनतया व्यवस्थापयति तत्प्रयोगस्य परार्थत्वात् । यस्तु श्रोतरि तच्छब्दश्रवणादुद्गच्छति शब्द-समभिरूढ-एवंभूताख्या प्रत्ययस्तस्य शब्द: प्रधानम् तद्वशेन तदुत्पत्तेः, अर्थस्तूपसर्जनम् तदुत्पत्तावनिमित्तत्वात्, स शब्दनय उच्यते। 10 तत्र च वचनमार्गः सविकल्प-निर्विकल्पतया द्विविध:- सविकल्पं सामान्यम् निर्विकल्पः पर्याय: मानता है अतः इन दो (स० ए०) नय में दूसरा भंग निर्विकल्प होता है। शब्दादि तीनों नयों में तीसरा भंग सविकल्प-निर्विकल्प हैं। शब्द और समभिरूढ में मिल कर चौथा भंग (सविकल्प-निर्विकल्प) होता है। शब्दादि तीन में अवक्तव्य के संयोग से शब्द और एवंभूत में मिल कर पाँचवा भंग (सविकल्पनिर्विकल्प) समभिरूढ-एवंभूत में मिल कर छट्ठा (निर्विकल्प) भंग, तथा शब्द-समभिरूढ-एवंभूत में मिल 15 कर सातवाँ सविकल्प-निर्विकल्प भंग समाविष्ट होता है। [ अर्थनय में सात भंग, शब्द नय में दो ] इस ४१ वी गाथा की दूसरे प्रकार से व्याख्या प्रस्तुत है- दूसरे प्रकार से व्याख्या में ऐसा कहते हैं कि उक्तस्वरूप सप्तभंगी सम्पूर्णतया सिर्फ संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्र तीन अर्थनयों में ही होती है यह मूलकार सत्तवियप्पो... इस गाथा से कहना चाहते हैं। उस का तात्पर्यार्थ व्याख्याकार दिखाते 20 ___ ज्ञानात्मक नय पक्ष में अर्थ नय में सात भंग पूरे लागु होते हैं किन्तु शब्दनय में (तीनों में) प्रथम-द्वितीय दो भंग ही लागु होते हैं। अर्थनय वक्ता के ज्ञानरूप है और शब्दनय श्रोता के ज्ञानरूप है। अर्थ के विषय में संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्रसंज्ञक जो बोध वक्ता को होता है वह अर्थनय है क्योंकि वह अर्थवश उत्पन्न होता है और यह नय भी प्रधानरूप से अर्थ का प्रस्थापन करता है। शब्द तो 25 अर्थबोध जन्य होता है इस लिये उस का प्रस्थापन गौणरूप से करता है क्योंकि शब्दप्रयोग हमेशा दूसरे के लिये होता है। श्रोता को तत्तत् शब्द के श्रवण से जो शब्द-समभिरूढ-एवंभूत संज्ञक बोध उदित होता है वह शब्दनय कहा जाता है, क्योंकि उस में शब्द की प्रधानता होती है, शब्द से वह उदित होता है, अर्थ यहाँ (उत्पत्ति के लिये) गौण है, शब्दबोध की उत्पत्ति में अर्थ यहाँ निमित्त नहीं होता। 30 [ शब्द-समभिरूढ नयों में सविकल्प, एवंभूत में निर्विकल्प ] यहाँ ज्ञानात्मकनय में वचनमार्ग के दो भेद हैं - सविकल्प और निर्विकल्प। सविकल्प यानी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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