SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 373
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 10 सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - १ अन्योन्यापरित्यागव्यवस्थितस्वरूपवाक्यनयानां शुद्ध्यशुद्धिविभागेन संग्रहादिव्यपदेशमासादयतां द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयावेव मूलाधार इति प्रदर्शनार्थमाह (मूलम् - ) एवं सत्तवियप्पो वयणपहो होइ अत्थपज्जाए । वंजणपज्जाए उण सवियप्पो णिव्वियप्पो य । । ४१ ।। 5 एवं इत्यनन्तरोक्तप्रकारेण सप्तविकल्पः = सप्तभेद: वचनमार्गो वचनपथः भवत्यर्थपर्याये = अर्थनये संग्रह-व्यवहार-ऋजुसूत्रलक्षणे सप्ताप्यननन्तरोक्ता भंगका भवन्ति । तत्र प्रथमः संग्रहे सामान्यग्राहिणि, 'नास्ति' इत्ययं तु व्यवहारे विशेषग्राहिणि, ऋजुसूत्रे तृतीयः, चतुर्थः संग्रह-व्यवहारयोः, पञ्चमः संग्रह ऋजुसूत्रयोः, षष्ठो व्यवहार - ऋजुसूत्रयोः, सप्तमः संग्रह - व्यवहार - ऋजुसूत्रेषु । व्यञ्जनपर्याये = शब्दनये सविकल्पः प्रथमे पर्यायशब्दवाच्यताविकल्पसद्भावेऽप्यर्थस्यैकत्वात् (प्रथमः ) । द्वितीय - तृतीययोनिर्विकल्पः [ अर्थनय - शब्दनय में सात भंगों की व्यवस्था ] एक-दूसरे को न छोड़ते हुए अपने अपने स्वरूप में सुस्थित वाक्यात्मक नयों, शुद्ध-अशुद्ध विभाग के द्वारा संग्रह - व्यवहार इत्यादि शब्दनिर्देश भले प्राप्त करें किन्तु उन का मूलाधार तो द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिक ये दो मूल नय ही हैं। इस तथ्य का ४१ वीं गाथा से निदर्शन किया जाता हैगाथार्थ :- उक्त रीति से अर्थपर्याय में सप्तप्रकारी वचनमार्ग होता है, व्यञ्जनपर्याय में तो सविकल्प15 निर्विकल्प होता है । । ४१ ।। ३५४ 25 व्याख्यार्थ :- अर्थपर्याय यानी अर्थनय संग्रह - व्यवहार और ऋजुसूत्र, इन का वचनमार्ग यानी वचनव्यवहार पूर्वोक्त गाथाओं के अनुसार सात विकल्पों से चलता है। पहला भंग सामान्यवस्तुग्राही संग्रह नय में प्रविष्ट है, क्योंकि वह सत्त्वमहासामान्यप्रेक्षी है । दूसरा भंग विशेषवस्तुग्राही व्यवहार में प्रविष्ट होगा, क्योंकि वह सत्त्व सामान्य को नजरअंदाज करता है । ऋजुसूत्र लिंगादिभेद से भेद की 20 पृच्छा होने पर मौन रख कर तृतीयभंग अवाच्यता को स्वीकार लेता है। चौथा दो अंशवाला भंग संग्रह और व्यवहार में मिलितरूप से समाविष्ट होगा । उसी तरह पाँचवा मिलितरूप से संग्रह और ऋजुसूत्र में, छट्ठा भंग व्यवहार - ऋजुसूत्र में और सातवाँ मिलित रूप से संग्रह - व्यवहार - ऋजुसूत्र में समाविष्ट होंगे। .... [ शब्दनय में सविकल्प - अविकल्प सात भंग ] व्यञ्जनपर्याय यानी शब्दनय ( शब्द, समभिरूढ और एवंभूत) । इस में सात भंगों के दो विभाग होते हैं, सविकल्प और निर्विकल्प | ( अर्थनय में तो सब सविकल्प हैं यह फलित होता है ।) जिस को पर्यायशब्दवाच्यता मान्य है उस प्रथम शब्दनय में अर्थ एक होता है किन्तु पर्यायशब्दविकल्प मौजूद होने से प्रथम भंग सविकल्प है। दूसरा समभिरूढ नय और तीसरा एवंभूत नय द्रव्यार्थरूप सामान्य से विनिर्मुक्त पर्याय के प्रतिपादक होने से, यानी यहाँ पर्यायशब्दवाच्यता न होने से द्वितीय भंग निर्विकल्प 30 है। समभिरूढ नय में पर्यायभेद से अर्थभेद होता । एवंभूत नय तो विवक्षित क्रियाकाल में ही तत्तत्क्रिया अन्वित अर्थ का ग्राहक होने से, लिंगभेद से, संज्ञा भेद से और क्रिया भेद से अर्थभेद Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy