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________________ खण्ड-३, गाथा-३६ ३४५ तु कथंचिदवक्तव्यः ।१२। ___ अथवा 'संद्रुतरूपाः सत्त्वादयो घटः' इत्यत्र दर्शनेऽर्थान्तरभूताः सत्त्वादयः, निजं संद्रुतरूपम् । ताभ्यामादिष्टो घटोऽवक्तव्यः। यतः संद्रुतरूपस्य सत्त्वरजस्तमस्सु सत्त्वे सत्त्वरजस्तमसामभावप्रसक्तिः तेषां परस्परवैलक्षण्येनैव सत्त्वादित्वात् सन्द्रुतरूपत्वे च वैलक्षण्याभावादभाव इति विशेष्याभावादवाच्यः। असत्त्वे त्वसत्कार्योत्पादप्रसङ्गः। न चैतदभ्युपगम्यते, अभ्युपगमेऽपि विशेषणाभावादवाच्यः ।१३। 5 ___ अथवा रूपादयोऽर्थान्तरभूताः असंद्रुतरूपत्वं निजम् ताभ्यामादिष्टोऽवक्तव्यः। य(?त)थाहिअरूपादिव्यावृत्ता रूपादयस्ते। एवं च रूपादीनां घटताऽवाच्या अरूपादित्वाद् घटस्य। न हि परस्परविलक्षणबुद्धिग्राह्या रूपादय एकानेकात्मकप्रत्ययग्राह्या रूपादिरूपघटतां प्रतिपद्यन्त इति विशेष्यलोपादघट का स्वरूप है। वह भी अन्वयी न होने से अवाच्य है। (पृथक् सत्त्व और अन्त्य विशेष दोनों अननुगत है फिर भी सत्त्व पर रूप है और अन्त्यविशेष स्व-रूप है - यह सब विवक्षा का जादू 10 है।) दोनों अवाच्यों से मिल कर एक साथ वस्तु का निरूपण अशक्य होने से घट अवक्तव्य है - इस प्रकार प्रथम-द्वितीय-तृतीय भंग निष्पन्न हुए। अनेकान्तवाद में तो वस्तुमात्र अनेकान्तात्मक होने से घट को कथञ्चिद् अवाच्य मानने में कोई दोष नहीं है।१२। [संद्रुपता और सत्त्वादि से भंगत्रय - १३ ] सांख्यदर्शन में, घट सत्त्वादिरूप है जो परस्पर भेद रखते हुए भी एकरूप में परिणत होते हैं 15 जिन्हें 'संद्रुत' कहा जाता है। अब यहाँ संद्रुतता ही वास्तव में स्व-रूप है और अन्योन्य भेद रखनेवाले सत्त्व-रजस्-तमस् ये पर रूप हैं। एक साथ उभय की विवक्षा होने पर घट अवाच्य है। कारण : नस-तमस (भिन्न होते हए भी उन) में संद्रतता को मानेंगे तो संद्रतता ही रहेगी. सत्त्वादि तीन का अस्तित्व लुप्त हो जायेगा, क्योंकि अन्योन्य भेद होगा तभी सत्त्वादि का स्व-तत्त्व बचेगा। संद्रुतता होने पर परस्पर विलक्षणता लुप्त हो जायेगी, तब संद्रुतता के विशेष्य भूत सत्त्वादि रहेंगे नहीं अतः 20 घट उन रूपों से अवाच्य बना रहेगा। अब यदि सत्त्व-रजस् आदि का बिलकुल सत्त्व ही नहीं होगा तो असत् की उत्पत्ति को यानी असत्कार्यवाद को मानना पडेगा, किन्तु वह सांख्यदर्शन में मान्य नहीं है। अगर उसे मान्य करेंगे तो संद्रुतता रूप विशेषण भाग जायेगा। आखिर घट को अवाच्य घोषित करना पडेगा। अनेकान्तवाद में कथंचिद् अवाच्यत्व स्वीकृत है।१३। [ रूपादि और असंद्रुपत्व से भंगत्रयनिष्पत्ति - १४ ] ___ १४ वा प्रकार :- रूपादि पर रूप हैं, क्योंकि द्रव्य-गुण के अभेदपक्ष में रूपादि समुदाय ही घट है, फिर समुदायरूप से गृहीत न हो कर एक-एक कर के गृहीत होते हैं - अत एव पर रूप हैं। असंद्रुतरूपत्व घट का स्व-रूप हैं क्योंकि समुदितरूप से गृहीत होता है। दोनों रूपों से एक साथ विवक्षा होने पर घट अवाच्य बनेगा। इस प्रकार, प्रथम-द्वितीय और तृतीय भंग निष्पन्न हैं। अन्योन्य विलक्षण बुद्धि से ग्राह्य एक एक रूपादि 'एकानेकात्मक प्रतीति यानी एक समुदायात्मना अनेक को 30 ग्रहण करनेवाले ज्ञान' से ग्राह्य जो अरूपादिस्वरूप घट, उस की अभिन्नता नहीं प्राप्त कर सकते । अतः विशेष्य का लोप होने से, अर्थात् समुदायभावापन्न होने पर रूपादिआत्मकता न रहने के कारण 25 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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