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________________ खण्ड-३, गाथा-३२ गोचरतया प्रसाधितत्वात् अर्थप्रतिपत्तिकारणतोऽनुमितत्वाच्च। न चाभावः कस्यचिद् भावाध्यवसायितया विशेषणम्, नाप्यर्थप्रतिपत्तिहेतुः । न च क्रमोप्यहेतुः तथात्मकवर्णेभ्योऽर्थप्रतीतेः । ततो भिन्नाभिन्नानुपूर्वीविशिष्टा वर्णा विशिष्टपरिणतिमन्तः शब्दः। स च पद-वाक्यादिरूपतया व्यवस्थितः, तेन विशिष्टानुक्रमवन्ति तथाभूतपरिणतिमापन्नानि पदान्येव वाक्यमभ्युपगन्तव्यम्। तद्व्यतिरिक्तस्य तस्य पदवदनुपपद्यमानत्वात्। ___यच्च ‘कथं शब्दो वस्त्वन्तरत्वात् पुरुषादेर्वस्तुनो धर्मो येनासौ तस्य व्यञ्जनपर्यायो भवेत्' इत्युक्तम् 5 (३१२-९) तत्र नामनयाभिप्रायात् नामनामवतोरभेदात् 'पुरुष' शब्द एव पुरुषार्थस्य व्यञ्जनपर्यायः। यद्वा 'पुरुष' इति शब्दो वाचको यस्यार्थगततद्वाच्यधर्मस्यासौ पुरुषशब्दः स चाभिधेयपरिणामरूपो व्यञ्जनपर्यायः कथं नार्थधर्म: ? स च व्यञ्जनपर्याय: पुरुषोत्पत्तेरारभ्य आ पुरुषविनाशाद् भवति इति जन्मादिमरणसमयपर्यन्त उक्तः। तस्य तु बालादयः पर्याययोगा बहुविकल्पाः तस्य पुरुषाभिधेयपरिणामवतो बालकुमारादयस्तत्रोपलभ्यमाना अर्थपर्याया भवन्त्यनन्तरूपाः। एवं च पुरुषो व्यञ्जनपर्यायेणैको बालादिभिस्त्वर्थ- 10 और तद्विशिष्टरूप से वर्णों की कथंचिद् भेदरूप से प्रतीति होती है। वर्णों के विशेषणरूप से अनुभूयमान क्रम का अपलाप करना युक्तियुक्त नहीं है, अन्यथा तो अनुभूयमान वर्णों का भी अपलाप करना होगा। यह प्रतीति भ्रान्तिरूप नहीं है क्योंकि क्रमविशिष्टरूप से वर्णों की अनिर्बाधप्रत्यक्षरूप से प्रतीति समर्थित है, तथा क्रम से भिन्नाभिन्न वर्गों रूप कारण की अनुमिति भी होती है। पहले जो पूर्ववर्णध्वंसविशिष्ट अन्त्य वर्ण का कथन किया था (३१६-२६) वहाँ कहना पडेगा 15 कि ध्वंसात्मक अभाव, भावात्मकतासंवेदक बोध में विशेषणरूप से प्रतीत नहीं हो सकता। न तो वह भावसंवेदन का हेतु हो सकता है। ‘उसी तरह क्रम भी कारण न बन सके' ऐसा मत बोलना, क्रमविशिष्ट (क्रमात्मक) वर्णों से अर्थबोध सुविदित है। सारांश, भिन्नाभिन्न आनुपूर्वी से विशिष्ट वर्ण ही विशेषरूप से परिणत हो कर 'शब्द' बन जाते हैं, जो कभी पदरूप या कभी वाक्यरूप से संविदित होता है। इस प्रकार, विशिष्ट अनुक्रम गर्भित विशिष्टपरिणामापन्न पदसमूह ही वाक्य मानना होगा। 20 इस से भिन्न किसी भी प्रकार का ‘पद' भी संगत नहीं है और उसी तरह ‘वाक्य' भी संगत नहीं। [व्यञ्जन पर्यायरूप शब्द वाच्य अर्थ का पर्याय ] ___ यह जो पहले प्रश्न किया था (३१३-११) पुरुष और उस का वाचक शब्द भिन्न भिन्न है तब शब्द पुरुषादिआत्मक वस्तु का धर्म कैसे होगा जिस से कि शब्द पुरुषात्मक अर्थ का 'व्यञ्जनपर्याय' कहा जा सके ? उस का उत्तर यह है कि नामनय (= शब्दनय) का अभिप्राय ऐसा है कि नाम 25 और नामवंत का अभेद होता है। अतः 'पुरुष' शब्द ही स्वयं पुरुषरूप अर्थ का व्यञ्जनपर्याय है। अथवा मूल गाथा में 'पुरुषशब्द' समास का विग्रह ऐसा करो - 'पुरुष' यह 'शब्द' है वाचक जिस का (यानी पुरुषात्मक अर्थनिष्ठ जो पुरुषशब्द वाच्य पुरुषत्व धर्म का) वह धर्म है पुरुषशब्द । वह पुरुषत्व अभिधेय वस्तु का परिणामरूप जो धर्म है वह व्यञ्जनपर्याय भी एक प्रकार से अर्थधर्म क्यों नहीं है ? ऐसा व्यञ्जनपर्याय पुरुषोत्पत्ति से ले कर पुरुषमृत्युपर्यन्त रहता है, अतः ३२ वीं मूल 30 गाथा में 'जन्मादिर्मरणसमयपर्यन्त' ऐसा पूर्वार्ध में कहा है। उत्तरार्ध में कहा है 'उस के बालादि पर्याय योग बहुविकल्प हैं - उस का मतलब यह है कि पुरुष अभिधेयपरिणामयुक्त उस के (पुरुष के) बाल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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