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________________ खण्ड-३, गाथा-३२ ३२७ न च शब्दादर्थप्रतिपत्तौ शब्दस्य त्रैरूप्यमस्ति। यतो न तस्य पक्षधर्मता, यत्रार्थस्तत्र धर्मिणि शब्दस्याऽवृत्तेः, गोपिण्डाधारण प्रदेशेन शब्दस्याश्रयायिभावस्य जन्य-जनकभावनिबन्धनस्याभावात् । अतः 'गोपिण्डवानयं देश: गोशब्दवत्त्वात्' इति नाभिधातुं शक्यम् । नापि गोपिण्डे गोशब्दो वर्त्तते, आधाराधेयवृत्त्या जन्यजनकभावेन वा गोपिण्डाभावेऽपि गोशब्दस्य दर्शनात् । न च गम्य-गमकभावेन तत्रासौ वर्त्तते, पक्षधर्मत्वाभावे तस्यैवानुपपत्तेः । वाच्यवाचकभावेन वृत्तावनुमानात् प्रमाणान्तरत्वम् । तेन ‘गोपिण्डो गोत्ववान 5 गोशब्दवत्त्वात्' अयमपि प्रयोगोऽनुपपन्न एव । नापि गोत्वे गोपिण्डविशेषणे वर्त्तते तत्, सामान्येनाश्रयाश्रयिभावस्य जन्यजनकभावस्य वाऽस्याभावात्। अतः 'गोत्वं गोपिण्डवत् गोशब्दवत्त्वात्' इत्यपि वक्तुमशक्यम् । विशेषे च साध्ये अनन्वयश्चात्र पक्षे दोषः। न च ‘गोशब्दो गवार्थवान् गोशब्दत्वात्' इति प्रयोगो युक्तः प्रमाण है यह सिद्ध होता है। [रूप्य के अभाव में अनुमानरूपता अस्वीकार्य ] 10 अनुमान के लिये आवश्यक त्रैरूप्य (पक्षधर्मतादि) यहाँ शब्द से अर्थबोध के लिये शब्द में जरूरी नहीं होता। कारण :- यहाँ शब्द में कोई पक्षधर्मता नहीं है कि वह हेतु हो सके। कारण, अर्थ जहाँ वृत्ति है वहाँ शब्द की वृत्ति नहीं होती। गोपिण्डाधारभूत जो देश है उस के साथ शब्द का न तो आश्रयाश्रयिभाव है न तो उस का हेतुभूत जन्य-जनकभाव है, इस लिये ऐसा परार्थानुमान बोल नहीं सकते कि 'यह देश गोपिण्डाश्रय है क्योंकि गोशब्दवान है।' तथा, गोशब्द की गोपिण्ड में भी वृत्ति 15 नहीं है, क्योंकि गोपिण्ड के साथ गोशब्द का न तो आधाराधेयभाव है न तो जन्य-जनक भाव है, क्योंकि गोपिण्ड के विरह में भी गोशब्द की उपलब्धि होती है। ऐसा भी नहीं है कि गोपिण्ड में गोशब्द गम्य-गमक भाव से रह जाय, क्योंकि जब पक्षधर्मता ही नहीं है तब गम्य-गमकभाव कैसे होगा ? यदि वाच्य-वाचकभाव सम्बन्ध से अर्थ में शब्द रहने का मानेंगे तो अनुमान से भिन्न शाब्दप्रमाण की अनायास सिद्धि हो गयी। [ अनुमानरूपता की सिद्धि के व्यर्थ प्रयास ] यही कारण है कि 'गोपिण्ड गोत्ववान् है क्योंकि गोशब्दवान् है' यह प्रयोग भी असंगत है, क्योंकि इस अनुमान के पहले ही वाच्य-वाचकभाव से गोशब्दवत्त्व मानने पर अनुमानभिन्न शाब्दप्रमाण मान लेना पडेगा। जैसे गोपिण्ड में गोशब्द नहीं रहता वैसे गोपिण्ड के विशेषणभूत गोत्व में भी नहीं रह सकता, क्योंकि गोत्व सामान्य के साथ गोशब्द का न तो आश्रय-आश्रयिभाव सम्बन्ध है, 25 न तो जन्य-जनक भाव है। अत एव 'गोत्व गोपिण्डवत है क्योंकि गोशब्दवत है। ऐसा , बोलना उचित नहीं। यदि अनुमान प्रयोग के द्वारा गो-सामान्य नहीं किन्तु गोविशेषवत्त्व को साध्य करेंगे तो अनन्वय यानी व्याप्यत्वासिद्धि दोष जरूर होगा। तथा, अर्थ को पक्ष कर के शब्दवत्त्व को साध्य बना कर प्रयोग करने के बदले अब शब्द को पक्ष कर के अर्थ को साध्य किया जाय जैसे :'गोशब्द गोअर्थवान् हैं क्योंकि गोशब्दात्मक है' तो यह भी असंगत है क्योंकि शाब्दबोध में ऐसी प्रतीति 30 किसी को नहीं होती। कोई बोल दे - ‘गौआ जा रही है' तो यहाँ गमन क्रिया विशिष्ट गो अर्थ की प्रतीति को नहीं मानेंगे तो किसी भी लोग को ऐसा बोध (अनुमानरूप) हो नहीं सकता कि 20 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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