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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ यद्वोपलभ्यमानोऽन्त्यो वर्णः पूर्ववर्णविज्ञानाभावविशिष्टः पदार्थे प्रतिपत्तिं जनयति प्राक्तनवर्णसंवित्प्रभवसंस्कारसव्यपेक्षो वा। न च संस्कारस्य विषयान्तरे कथं विज्ञानजनकत्वमिति प्रेर्यम्, तद्भावभावितयार्थप्रतिपत्तेरुपलब्धेः पूर्ववर्णविज्ञानप्रभवसंस्कारश्चान्त्यवर्णसहायतां पूर्वपूर्वसंस्कारप्रभवतया प्रणालिकया विशिष्टः समुत्पन्नः सन् प्रतिपद्यते। तथाहि- प्रथमवर्णे तावद् विज्ञानम् तेन च संस्कारो जन्यते ततो द्वितीयवर्णविज्ञानम् तेन पूर्ववर्णविज्ञानाहितसंस्कारसहितेन विशिष्टः संस्कारो जन्यते ततस्तृतीयवर्णे ज्ञानम् तेन पूर्वसंस्कारविशिष्टेनापरो विशिष्टतरः संस्कारो निर्वर्त्यते इति यावदन्त्यः संस्कारोऽर्थप्रतिपत्तिजनकान्त्यवर्णसहाय: तथाभूतसंस्कारप्रभवस्मृतिसव्यपेक्षो वाऽन्त्यो वर्णः पदरूपः पदार्थप्रतिपत्तिहेतुः ।
अथवा शब्दार्थोपलब्धिनिमित्तादृष्टनियमादविनष्टा एव पूर्ववर्णसंवित्प्रभवाः संस्कारा अन्त्यसंस्कार विदधति, तस्मात् पूर्ववर्णेषु स्मृतिरुपजाता अन्त्यवर्णेनोपलभ्यमानेन सहार्थप्रतिपत्तिमुत्पादयति। वाक्यार्थ10 प्रतिपत्तौ वाक्यस्याप्ययमेव न्यायोऽङ्गीकर्तव्यः । वर्णाद् वर्णोत्पत्त्यभावप्रतिपादनं च सिद्धसाधनमेव । तदेवं
यथोक्तं सहकारिकारणसव्यपेक्षादन्त्याद्वर्णाद् अर्थप्रतिपत्तिरन्वय-व्यतिरेकाभ्यामुपजायमानत्वेन निश्चीयमाना स्फोटपरिकल्पनां निरस्यति तदभावेऽप्यर्थप्रतिपत्तेरुक्तप्रकारेण सम्भवेऽन्यथानुपपत्तेः प्रक्षयात् । न हि दृष्टादेव
[ अथवा पूर्ववर्णज्ञानध्वंससहकृत अन्त्यवर्ण से बोध ] अथवा वर्णध्वंस के बदले पूर्ववर्णविज्ञानध्वंस के सहकार से, उपलब्धिगोचर अन्यवर्ण ‘पद' बन 15 कर पदार्थ का बोध करायेगा। अथवा पूर्णवर्णज्ञानजन्यसंस्कार सहकृत अन्त्य वर्ण ‘पद' बन कर पदार्थबोध
करा सकता है। शंका :- पूर्ववर्ण का संस्कार पूर्व वर्ण की स्मृति ही करा सकता है, अन्य विषय के विज्ञान का जनक कैसे हो सकता है ? उत्तर :- नहीं। संस्कार से साक्षात अन्य विषय का बोध न होने पर भी पूर्ववर्णों की स्मृति होने पर अन्त्यवर्णजन्य पदार्थबोध अवश्यंभावि होने से श्रवणगोचर
होता है। पूर्ववर्णविज्ञानजन्यसंस्कार भी पूर्व-पूर्वसंस्कारजन्य होने से परम्परया विशिष्ट (= सक्षमतावान्) 20 बन जाता है अतः वह अन्त्यवर्ण को सहायता देता है। कैसे यह देखिये - प्रथम वर्ण, फिर उस
का ज्ञान, उस से संस्कारजन्म, फिर दूसरे वर्ण का ज्ञान, फिर पूर्ववर्णज्ञानप्रेरितसंस्कार सहित उस ज्ञान से विशिष्ट संस्कार जन्म लेता है। फिर तीसरा वर्ण उस का ज्ञान पूर्वसंस्कारविशिष्ट इस ज्ञान से नया विशिष्टतर संस्कार पैदा किया जाता है। इस प्रकार चलते चलते अर्थबोधजनक अन्त्य वर्ण सहायवाला
संस्कार (पदार्थबोधहेतु बनता है), अथवा तथाविधसंस्कारजन्यस्मृतिसापेक्ष अन्त्य वर्ण, जो अब पदरूप 25 है, वह पदार्थबोधहेतु बनता है।
[ अविनष्टसंस्कारजन्य अन्त्यसंस्कार अ अन्त्यवर्ण से अर्थबोध ] वैशेषिक पंडित दूसरा विकल्प दिखाते है – अथवा, शब्दार्थबोध का अदृष्ट भी निमित्त है उस अदृष्ट के प्रभाव से पूर्व-पूर्ववर्णज्ञानजन्य संस्कार अवश्य अविनष्ट रहते हैं। वह संस्कारवृंद अन्त्यसंस्कार
को जन्म देते हैं। उस संस्कार से पुनः पूर्व वर्णों की स्मृति उत्पन्न होती है। उपलब्धिगोचर अन्त्यवर्ण 30 को साथ दे कर वही स्मृति पदार्थबोध को जन्म देती है। इसी तरह वाक्य से वाक्यार्थ बोध के
लिये भी यही न्यायप्रक्रिया स्वीकार लेना है। पूर्वपक्षी स्फोटवादी ने जो वर्ण से वर्ण की उत्पत्ति का निषेध किया है वह तो हमारे लिये सिद्धसाधन है। निष्कर्ष – पूर्वोक्त सहकारीकारण सापेक्ष चरमवर्ण
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