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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १ अत्र वैयाकरणाः प्राहुः 'यस्माद् उच्चरितात् ककुदादिमदर्थप्रतिपत्तिः स शब्द:' [ ] । ननु अत्र किं गकार- औकार- विसर्जनीयाः ककुदादिमदर्थप्रतिपादकत्वेन शब्दव्यपदेशं लभन्ते ? आहोस्वित्तद्व्यतिरिक्तः पदस्फोटादि: ? ३१२ तत्र न तावद् वर्णा अर्थप्रत्यायकाः यतस्ते किं समुदिता अर्थप्रतिपादका उत व्यस्ताः ? यदि 5 व्यस्तास्तदैकेनैव वर्णेन गवाद्यर्थप्रतिपत्तिरुत्पादितेति द्वितीयादिवर्णोच्चारणमनर्थकं भवेत् । अथ समुदिता अर्थप्रत्यायकाः, तदपि न सङ्गतम् क्रमोत्पन्नानामनन्तरविनष्टत्वेन समुदायाऽसम्भवात् । न च युगपदुत्पन्नानां समुदायप्रकल्पना, एकपुरुषापेक्षया युगपदुत्पत्त्यसम्भवात्, प्रतिनियतस्थान-करण-प्रयत्नप्रभवत्वात् तेषाम् । न च भिन्नपुरुषप्रयुक्तगकार - औकार विसर्जनीयानां समुदायेऽप्यर्थप्रतिपादकत्वं दृष्टम् प्रतिनियतक्रमवर्णप्रतिपत्त्युत्तरकालभावित्वेन शाब्धा: प्रतिपत्तेः संवेदनात् । 10 हैं पहले कोई विद्वान प्रश्न उठाते हैं कि 'पुरुष' शब्द का स्वरूप क्या है ? दूसरा प्रश्न यह है कि जब शब्द और अर्थ अत्यन्त भिन्न है जैसे घट और वस्त्र, तो शब्द ( व्यञ्जनपर्याय) अर्थ का पर्याय कैसे हो गया ? ( याद किजिए व्याख्याकारने अभी अभी 'पुरुष' शब्द को पुरुष वस्तु का व्यञ्जनपर्याय कह दिखाया है ।) प्रथम प्रश्न के उत्तर में व्याकरणविज्ञ कहते हैं जिस का ( 'गौ' शब्द का) उच्चारण करने पर 15 ( श्रोता को ) खूंध आदि अवयववाले (गौ ) अर्थ का भान होता है उस को शब्द कहा जाता है । ( यह शब्द के स्वरूप का विवरण हुआ ।) ( महाभारत प्रथमखंड एवं अनेकान्त जयपताका में ऐसा कथन है ।) अब शब्द के स्वरूप की विशेष चर्चा शुरु की जाती है व्याकरणवेत्ता के सामने अब ये दो प्रश्न खड़े किये गये हैं। A'गौ' पद में गकार- औकारविसर्ग ये तीन खूंध आदि विशिष्ट अर्थ का निदर्शक होने से 'शब्द' पद प्रयोग होता है ? Bया 20 उस से भिन्न कोई पदस्फोट आदि होता है ? प्रश्नकार अब कहते हैं * वर्ण तो अर्थबोधक नहीं होते । यदि होते हैं तो समुदित वर्ण अर्थबोधक होते हैं या पृथक पृथक् (यानी व्यस्त ) ? यदि पृथक्, तो प्रथम उच्चारित वर्ण से ही अर्थबोध के हो जाने से दूसरे आदि वर्णों का उच्चारण व्यर्थ जायेगा । यदि समुदित वर्ण अर्थबोधक हैं तो वह संगत नहीं क्योंकि उन की उत्पत्ति क्रमशः होती है, अग्रिम वर्णोच्चार होता है तब पूर्व वर्ण नष्ट हो जाता है अतः उन का समुदाय बन नहीं पाता। ऐसी 25 कल्पना करें कि एक साथ उत्पन्न वर्गों का समुदाय बन जायेगा तो वह व्यर्थ है क्योंकि एक व्यक्ति से एक साथ अनेक वर्णों का जन्म अशक्य है, क्योंकि एक व्यक्ति के द्वारा प्रतिनियत कण्ठादि स्थान, जीवादि करण और व्यक्ति का तथाविध प्रयत्न मिल कर एक से ज्यादा वर्ण की एक साथ उत्पत्ति शक्य नहीं है। यदि कहें कि 'एक व्यक्ति 'ग' बोले, दूसरी 'औ' बोले, तीसरी विसर्ग बोले, तीनों एक साथ बोलेंगे तो उन के समुदाय से अर्थबोध हो सकेगा ।' तो यह भी कहीं दिखता - Jain Educationa International - . एतद्विषयक बहुग्रन्थसदृशसन्दर्भवाक्यानि महाभारत - मीमांसा० - अनेकान्तज० प० - प्रमेयक० - स्या० र० - श्लो० वा० - पार्थ० व्या० - प्रशस्त० कंद० स्फोटसिद्धि - तत्त्वसं० का०- सर्वदर्शन सं० आदि ग्रन्थेष्ववलोकनार्हाणि पूर्वसंस्करणे दृश्यानि ।। * प्रमेयकमलमार्त्तण्ड में, प्रशस्तपादकंदली टीका में, स्फोटसिद्धिग्रन्थ में ऐसे वाक्यसंदर्भ को देख सकते हैं । For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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