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________________ खण्ड - ३, गाथा - २० २७५ इव, अनिवृत्तौ वा न प्रमाणमप्रमाणबाधकं भवेत् । न च क्षणक्षयनिश्चये ' स एवाहम्' इति प्रत्ययो युक्तः अपि तु 'स इव' इति स्यात् । न हि गवयनिश्चये 'गौरव' इति प्रत्ययो दृष्टः अपि तु 'गौरिव' इति। न च क्रमवर्त्तिष्वभिष्वङ्ग-द्वेषादिपर्यायेषु चैतन्यानुस्यूतिप्रत्ययस्य मानसत्वमात्मनि क्षणक्षयमनुमानाद् निश्चिन्वतोऽपि तदैव स्पष्टमनुभूयमानत्वाद् विकल्पद्वयस्य युगपदुत्पत्तिः परैर्नेष्टेति विकल्परूपत्वे एकत्वप्रत्ययस्य क्षणिकत्वनिश्चयसमये सद्भावो न भवेत् । इत्येकान्तनित्याऽनित्यव्युदासेनोभयपक्ष एव बन्ध- 5 स्थितिकारणं युक्तिसङ्गतम् । । १९ ।। किञ्च, एकान्तवादिनां संसारनिवृत्ति- तत्सुखमुक्तिप्राप्त्यर्था प्रवृत्तिश्चाऽसङ्गतेत्याह(मूलम् - ) बंधम्मि अपूरन्ते संसारभओघदंसणं मोज्झं । बन्धं व विणा मोक्खसुहपत्थणा णत्थि मोक्खो य ।। २० ।। बन्धे वाऽसति संसारो = जन्म-मरणादिप्रबन्धस्तत्र तत्कारणे वा मिथ्यात्वादावुपचारात् तच्छब्दवाच्ये 10 भयौघो = भीतिप्राचुर्यं तस्य दर्शनं 'सर्वं चतुर्गतिपर्यटनं दुःखात्मकम्' इति पर्यालोचनं मौढ्यं मूढता से वस्तु भेद सिद्ध न होने से, 'मैं वही हूँ' इस बुद्धि का मिथ्यात्व असिद्ध हो जाता है । क्षणिकवादी ऐसा कहें कि 'आत्मा में एक ओर क्षणक्षय के अनुमानरूप निश्चय हो रहा है उसी क्षण में जो क्रमिक राग-द्वेषादि पर्यायों में अनुविद्ध एक चैतन्य की प्रतीति होती है वह मानस विकल्प है (प्रत्यक्षप्रमाणरूप नहीं) ' तो यह अयुक्त है क्योंकि विकल्प स्पष्टानुभवरूप नहीं होता जब कि अनुविद्ध 15 चैतन्य की प्रतीति ( मैं वही हूँ) तो उसी वक्त स्पष्टानुभवरूप होती है । तथा अनुमानरूप विकल्प के साथ उक्त मानसविकल्प की कल्पना इस लिये भी अयुक्त है कि एक साथ विकल्पद्वय का उद्भव क्षणिकवादी को मान्य नहीं है । अतः अनुविद्ध एक चैतन्य प्रतीति यदि विकल्परूप होगी तो क्षणभंगनिश्चय ( अनुमान) काल में उस की सत्ता नहीं होती । इस प्रकार, एकान्तनित्य या एकान्तअनित्य पक्ष का निरसन हो जाने से यह फलित होता है कि उभयवाद ( कथंचिद् नित्यानित्य) पक्ष में ही बन्ध-स्थिति 20 कारण ( योग- कषायादि ) युक्तिसङ्गत हैं ।। १९।। [ बन्ध नहीं तो संसार का भय क्यों ? ] अव० :- एकान्तवादीयों की संसारनिवृत्ति के लिये, तथा सुख एवं मुक्ति के लिये प्रवृत्ति व्यर्थ है यह २० गाथा में दिखाते हैं - = गाथार्थ :- बन्ध युक्तिरिक्त होने पर संसारभयबाहुल्य का प्रदर्शन मूढता है । बन्ध के बिना मोक्ष 25 की प्रार्थना भी नहीं हो सकती एवं मोक्ष भी ।। २० ।। Jain Educationa International व्याख्यार्थ :- यदि बन्ध वास्तव नहीं तो जन्म - मृत्युपरम्परारूप अथवा उस के कारणभूत मिथ्यात्वादि जो कि उपचार से संसारशब्दवाच्य है उस संसार के प्रचुर भय का दर्शन यानी सेवन अथवा 'पूरा चारगतिपरिभ्रमण दुःखात्मक है' ऐसा विमर्श मूढता ही है क्योंकि बन्ध वास्तव न होने पर संसार में दुःखसमुदायकारणता दुर्घट है, अर्थात् वह मिथ्याज्ञान है, जैसे कि वन्ध्यापुत्र मुझे परेशान करेगा 30 ऐसे भय सम्बन्धि परामर्श । मिथ्याज्ञान से होने वाली प्रवृत्ति विसंवादिनी यानी निष्फल होती है । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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