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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ अनुसन्धानविकले ‘अहमनेनाऽऽक्रुष्टः' इति द्वेषसम्भवः । तथा च ‘अन्य आक्रुष्टः अन्यो रुष्टः' 'अन्यो व्यात अपरो बद्ध अपरश्च मुक्तः' इति कुशलाकुशलकर्मगोचरप्रवृत्त्याद्यारम्भवैफल्यप्रसक्तिः। न चैकसन्ततिनिमित्तोऽयं व्यवहारः, क्षणिकैकान्तपक्षे सन्ततिकल्पनाबीजभूतोपादानोपादेयभावस्यैवाऽघटमानत्वात् ।
न चेयमनुसन्धानप्रतिपत्तिर्मिथ्या, द्वेष-गर्व-शाठ्याऽसन्तोषादीनामन्योन्यविरुद्धस्वभावानां क्रमविवर्तिनां चिद्विवर्तानां 5 स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धानाम् तथा तथाभवितुश्च संशय-विपर्यासाऽदृढज्ञानाऽगोचरीकृतस्यैकस्य चैतन्यस्यानुभवात् ।
न च बाधारहितानुभवविषयस्यापह्नवः सुखादेरप्यनुभवविषयस्याऽपह्नुतिप्रसङ्गात्। तथा च प्रमाणप्रमेयादिव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिः। __यदपि 'मिथ्याध्यारोपहानार्थं यत्नोऽसत्यपि मोक्तरि' (प्र.वा. १-१९४) इत्युक्तम् तदप्यनेनैव प्रतिविहितम्,
यथोक्तप्रतिपत्तेमिथ्यात्वाऽसिद्धेः। न चानुमाननिश्चितेऽर्थे आरोपबुद्धेरुत्पत्तिधूमनिश्चयावगतधूमध्वज इव । 10 न च मिथ्याज्ञानस्य सहजत्वात् विपरीतार्थोपस्थापकानुमानप्रवृत्तावपि न निवृत्तिः तथाभ्युपगमे बोधसन्तानवत्
तस्य सर्वदाऽनिवृत्तिरित्यमुक्तिप्रसक्तिः । असहजं तु तत्त्वज्ञानप्रादुर्भावेऽवश्यं निवर्त्तते शुक्तिकावगमे रजतभ्रम होगा - ‘अतः मुझ पर इसने आक्रोश किया' ऐसा द्वेष होगा नहीं। कारण :- इस पक्ष में आक्रोशकर्ता अन्य है रोषकर्ता अन्य है, क्रियाकारक अन्य है बन्धप्रतियोगी अन्य है एवं मुक्त होने वाला भी अलग है, अतः कुशल या अकुशल कर्मसंबन्धि प्रवृत्ति आदि कारक प्रयत्नों में निष्फलता प्राप्त होगी।
[ 'मैं बद्ध हूँ' इत्यादि बुद्धि में मिथ्यात्व असिद्ध ] धर्मकीर्ति पंडित ने प्रमाणवार्त्तिक ग्रन्थ में जो यह कहा है कि 'मुक्तिगामी कोई न होने पर भी('मैं बद्ध हूँ' ऐसे) मिथ्या आरोप की निवृत्ति के लिये प्रयत्न किया जाता है' – यह कथन भी ऊपरि कथित युक्ति से निरस्त हो जाता है, क्योंकि 'मैं बद्ध हूँ' ऐसी बुद्धि मिथ्या मानना अयुक्त
है। जैसे धूमनिश्चय से निश्चित होनेवाले अग्नि में आरोपित प्रकार की बुद्धि नहीं होती ऐसे ही 20 अनुमान से निश्चित बन्धादि अर्थ के प्रति आरोपबुद्धि का उदय नहीं होता। ऐसा कहना कि - 'मैं बद्ध हूँ' इत्यादि मिथ्याज्ञान अनादिकालीन सहज होने से, विपरीत अर्थ 'मैं बद्ध नहीं' उपस्थापक अनुमान प्रवृत्त रहने पर भी उक्त सहज बुद्धि की निवृत्ति नहीं होती' - तब ऐसा मानने पर तो, वैसे बोधसन्तान की तरह उस मिथ्याज्ञान की भी निवृत्ति न होने से कभी मुक्ति लाभ न होने की
अनिष्टता प्रसक्त होगी। जो असहज मिथ्याज्ञान होता है वह तो तत्त्वज्ञान के उदय में अवश्य निवृत्त 25 हो जाता है जैसे सीप का भान होने पर चाँदी का भ्रम निवृत्त हो जाता है। कदाचित् उस की निवृत्ति न होने का मानेगें तो कभी भी प्रमाण अप्रमाबुद्धि का बाधक नहीं हो सकेगा।
[ 'मैं वही हूँ' यह प्रतीति मिथ्याविकल्परूप नहीं ] यदि वस्तु के निश्चय के साथ क्षणभंग का भी निश्चय हो जाता तो मैं वही हूँ' ऐसा भान कभी न होता, उलटे – 'उस के जैसा हूँ' ऐसा ही भान होता। गवय का निश्चय होने से गाय 30 का स्मरण होने पर भी 'गाय ही है' ऐसा निश्चय नहीं होता किन्तु 'गाय जैसा है' ऐसा निश्चय
होता है, क्योंकि गवय और गाय भिन्न है। यदि क्षणभेद से वस्तुभेद होता तब तो मैं वही हूँ' ऐसा भान न हो कर 'उस के जैसा हूँ' ऐसा ही बोध होता, लेकिन होता नहीं है अतः क्षणभेद
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