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________________ २५६ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ प्रागुपादानाऽदर्शनात्। न चानुमीयमानमत्रोपादानम्, शब्दादावपि तथाप्रसङ्गात्।। न च ‘दृष्टस्यार्थस्याखिलो गुणो दृष्ट एव' इति परिणामसाधनं निरवकाशम्, दृष्टेप्यर्थे पारिमाण्डल्यादेाह्याकारविवेकादेर्वांशस्याऽदृष्टत्वेनानुमीयमानत्वात्, एवं च परिणामसाधनं निरवद्यमेव। यदि हि दृष्टस्याऽदृष्टोऽशः सम्भवति कथमुत्पन्नस्वभावस्यानुत्पन्नः कश्चानात्मा न सम्भवी ? स्वभावभेदस्य भावभेदसाधनं प्रत्यनैकान्तिकत्वेन प्रदर्शितत्वात्। तस्माद् वस्तु यद् नष्टं तदेव नश्यति नक्ष्यति च, यदुत्पन्नं तदेवोत्पद्यते उत्पत्स्यते च कथञ्चित्, यदेव स्थितं तदेव तिष्ठति स्थास्यति च कथंचिद् इत्यादि सर्वमुपपन्नमिति भावस्योत्पादः स्थितिविनाशरूपः विनाशोऽपि स्थित्युत्पत्तिरूपः स्थितिरपि विगमोत्पादात्मिका कथंचिदभ्युपगन्तव्या। सर्वात्मना चोत्पादादेः परस्परं तद्वतश्च यद्यभेदैकान्तो भवेत् नोत्पादादित्रयं स्यादिति न कस्यचित् 10 कुतश्चित् तद्वत्ता नाम । न च वस्तुशून्यविकल्पोपरचितत्रयसद्भावात्तद्वत्ता युक्ता अतिप्रसंगात्, खपुष्पादेरपि की प्रथम बुद्धि की भी बिना उपादान ही उत्पत्ति माननी पडेगी क्योंकि वहाँ भी शब्दादि की तरह कोई पूर्व-उपादान नहीं दिखता है। यहाँ उपादान का अनुमान करेंगे तो शब्दादि के पूर्व में भी उपादान का अनुमान करना होगा। [ वस्तु का पूर्वोत्तरपरिणाम-साधन सयुक्तिक ] 15 शंका :- जो प्रत्यक्षीकृत अर्थ है उस का कोई अंश अदृष्ट नहीं छूट जाता, उस के पूरे गुण अंशो का प्रत्यक्ष हो जाता है। अतः दृष्ट वस्तु के उत्तरपरिणाम का साधन व्यर्थ है। उत्तर :- नहीं, अर्थ का प्रत्यक्ष करने पर भी उस के पारिमण्डल्य अंश का, अथवा संवेदन का स्वप्रत्यक्ष करने पर भी ग्राह्याकारों के भेद अंश का दर्शन हो नहीं जाता इसीलिये तो उस का अनुमान किया जाता है। इस प्रकार वर्तमानदृष्ट वस्तु का उत्तरपरिणाम अदृष्ट रह जाने से उस का साधन दोषमुक्त ही 20 है। यदि दृष्ट वस्तु का भी पारिमाण्डल्यादि अदृष्ट अंश सम्भव है तो उत्पन्न स्वभावी वस्तु का भी कोई अनुत्पन्नस्वरूप अंश क्यों संभव नहीं होगा ? 'स्वभाव भेद होने पर भाव-भेद अवश्य होता है' – इस नियम में व्यभिचार का प्रदर्शन पहले क्षणिकतावादनिरसन में किया जा चुका है। निष्कर्ष :जिस वस्तु को नष्ट माना जाता है वह भी कुछ अंश में वर्तमान में नाश-अनुभव कर रही है एवं कुछ अंश में भविष्य में नाशाधीन होगी जरूर। इसी तरह, जो वस्तु उत्पन्न है वह भी अन्य कुछ 25 अंश से उत्पन्न हो रही है, एवं अन्य अन्य अंशो से भविष्य में उत्पन्न होनेवाली है। तथैव, जो वस्तु अतीत में स्थिर थी वह वर्तमान में स्थितिभोग कर रही है और भविष्य में कथंचित् स्थिर रहनेवाली है। यह सब त्रितयात्मक युक्तिसिद्ध हो जाता है। इस प्रकार, वस्तु का उत्पाद कथंचित् स्थिति-विनाश से अभिन्न है, विनाश भी स्थिति-उत्पत्ति से कथंचिद् अभिन्न है, स्थिति भी कथंचिद् उत्पत्तिविनाश से अभिन्न है - ऐसी वस्तुमात्र की त्रितयरूपता कथंचिद् स्वीकारार्ह है। [उत्पादादि तीन में एकान्त से भेद या अभेद दुर्घट ] उत्पादादि तीनों में तथा उत्पादादिशाली वस्तु में यदि परस्पर सर्वथा अभेद भी नहीं होता। यदि एकान्त अभेद होगा तो 'तीन' नहीं होंगे, न तो कोई किसी से तद्युक्त होगा, क्योंकि एकान्त ॐ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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