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________________ खण्ड - ३, गाथा - १२ २५५ फलयोरनुवृत्तिं प्रतिक्षिपेत् ? संशयज्ञानं वा परस्परव्यावृत्तोल्लेखद्वयं बिभ्रद् यद्येकमभ्युपगम्यते कथं न पूर्वापरक्षणप्रवृत्तमेकं हेतुफलरूपं वस्तु ? शब्द- विद्युत्-प्रदीपादीनामप्युत्तरपरिणामाऽप्रत्यक्षत्वेऽपि तस्य सद्भावोऽभ्युपगन्तव्यः । पारिमाण्डल्यादिवत् संविद्ग्राह्याकारविवेकवद् वाऽध्यक्षस्यापि केनचिद्रूपेण परोक्षता, अविरोधात् । न च पारिमाण्डल्यादेः प्रत्यक्षतेति वाच्यम्, शब्दाद्युत्तरपरिणामेऽप्यस्य वक्तुं शक्यत्वात् विशेषाभावात् । अत एव अन्ते क्षयदर्शनात् 5 प्रागपि तत्प्रसक्तिरिति न वक्तव्यम्, मध्ये स्थितिदर्शनस्य पूर्वापरकोटिस्थितिसाधकत्वेन प्रसिद्धेः । न हि शब्दादेरनुपादाना उत्पत्तिर्युक्तिमती, नापि निरन्वया सन्ततिविच्छित्तिः, चरमक्षणस्याऽकिञ्चित्करत्वेऽवस्तुत्वापत्तितः पूर्व- पूर्वक्षणानामपि तदापत्तितः सकलसन्तत्यभावप्रसक्तेः । न च शब्दादेर्निरुपादानोत्पत्त्यभ्युपगमेऽन्येषामपि सा सोपादानाऽभ्युपगन्तुं युक्ता । तथा च सुप्तप्रबुद्धबुद्धेरपि निरुपादानोत्पत्तिप्रसक्तिः, तत्रापि शब्दादेरिव अभेद का इनकार कैसे कर सकता है ? तथा परस्पर विरुद्ध कोटिद्वय के उल्लेखवाले संशयज्ञान को 10 यदि एक अभिन्न मानता है तो पूर्वापरक्षणवृत्ति हेतुफल को एक वस्तु मानने में क्यों डरता है ? [ शब्द - विद्युत्-प्रदीपादि में उत्तरपरिणामतः स्थैर्य ] - हालाँकि शब्द-विद्युत्-प्रदीपादि में क्षणभंगुरता दिखती है, किन्तु ऐसा एकान्त नहीं है । शब्द उत्पन्न होते ही सुन लिया, बाद में उस का प्रतिघोष भी सुनने को मिलता है। मतलब मध्य क्षण में भले वह प्रत्यक्ष नहीं है किन्तु नष्ट भी नहीं है, अत एव उस का उत्तर परिणाम प्रतिघोष सुनाई 15 देता है। विद्युत् का चमकार दिखता है, बाद में नहीं दिखता किन्तु जमीन पर कहीं उस के गिरने से बडा गर्त्त बन जाता है अतः चमकार के बाद भी उस का उत्तर परिणाम मौजूद है। प्रदीप में तो अन्तिम दीप ज्योत तक उत्तरोत्तर परिणाम स्पष्ट ही दिखाई देता है। दूसरी और जिस को आप प्रत्यक्ष कहते हैं वह भी किसी रूप से परोक्ष होता है जैसे पारिमाण्डल्य (= अणुपरिमाण) अथवा संवेदन और ग्राह्य आकारों का भेद । ( बौद्ध मत में अणु को स्वलक्षण को प्रत्यक्ष मानते हैं, उसके 20 परिमाण को नहीं । तथा संवेदन स्वप्रत्यक्ष माना जाता है किन्तु उस से ग्राह्य- ग्राहकाकार के भेद को प्रत्यक्ष नहीं माना जाता ।) यदि कहें कि अणु के साथ उस के पारिमाण्डल्य का भी हम प्रत्यक्ष मान लेंगे अच्छा ! तब तो शब्दादि के साथ हम उन के उत्तर परिणाम को भी प्रत्यक्ष मान लेंगे, - = अनुभवबाह्यता तो दोनों ओर रहती है, कोई फर्क नहीं । जैसे आपने उत्तर परिणाम का अस्तित्व मान लिया, वैसे हम अन्तिमपल में नाश के दर्शन 25 से पूर्व-पूर्व क्षणों में भी नाश को मान लेंगे ऐसा मत बोलना, क्योंकि तब मध्य क्षणों में स्थिति के दर्शन में, पूर्वोत्तर काल - कोटि में भी स्थितिसाधकता प्रसक्त होने पर उस की भी प्रसिद्धि आ पडेगी । शब्दादि की बिना उपादान उत्पत्ति शक्य नहीं है, युक्तिसंगत भी नहीं है । निरन्वय सन्तानोच्छेद भी असत् ठहरेगा । फलतः उपान्त्य क्षण भी युक्तियुक्त नहीं। यदि अन्तिम क्षण अर्थक्रियाकारी न होने से बिना अर्थक्रिया के असत् ठहरेगा...इस तरह पूर्व-पूर्व सभी क्षणों में अवस्तुत्व आपत्ति आने से पूरे 30 सन्तान में (प्रत्येक क्षणों में) असत्त्व की आपत्ति होगी । यदि बौद्धवादी शब्दादि की निरुपादान उत्पत्ति मानते हैं तब तो घटादि की भी सोपादान उत्पत्ति नहीं मानना चाहिए। मतलब कि सो कर जागनेवाले Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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