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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १ २५० प्रतीतेः, अन्यथा तत्र विशेषावभासे संशयाद्यनुत्पत्तिप्रसक्तिः, विशेषावगतेस्तद्विरोधित्वात् । न च तदुत्तरकालभाविसादृश्यनिमित्तैकत्वाध्यवसायनिबन्धनेयं संशयाद्यनुभूतिः, प्राग् विशेषावगमे एकत्वाध्यवसायस्यैवाऽसम्भवात्। अनुभूयते च दूरदेशादौ वस्तूनि सर्वजनसाक्षिकी प्राक् सामान्यप्रतिपत्तिः, तदुत्तरकालभाविनी च विशेषावगतिः। अत एव अवग्रहादिज्ञानानां कालभेदानुपलक्षणेऽपि क्रमोऽभ्युपगन्तव्यः, उत्पलपत्रशत5 व्यतिभेद इव । B द्वितीयविकल्पोऽप्यत एवाऽनभ्युपगमार्होऽनुगताकाराऽप्रतिपत्तौ तद्विशेषावभासस्याऽसम्भवादिति। न हि मूल-मध्याग्रानुस्यूतस्थूलेकाकारप्रतिभासनिह्नवे विविक्ततत्परमाणुप्रतिभासाऽनपह्नव इति कुतस्तस्य स्वविषयव्यवस्थापनद्वारेणान्यबाधकत्वम् ? न चैकत्वप्रतिभासस्य मिथ्यात्वम् तद्विषयस्य विकल्प्यमानस्याऽघटमानत्वादिति वक्तव्यम्, विकल्पमात्रात् प्रमाणस्यान्यथात्वाऽयोगात् । न चानुगतावभासस्याऽप्रामाण्यम्, 10 तन्निबन्धनाभावात्। न च क्षणिकानेकनिरंशपरमाण्ववभासस्तन्निबन्धनम्, तस्याभावात् । न ह्यसंवेद्यमानस्तथाभूतावभासः प्रमाणम् इतरद् वा, प्रतीतिधर्मत्वात् प्रमाणेतरयोः । न च सञ्चितपरमाणुनिबन्धन एवायमनुस्यूतमें अवस्थित वस्तुसामान्य की ही प्रतीति होती हैं । यदि ऐसा नहीं माने तो वहाँ पहले से विशेष प्रतिभास मान लेने पर संशय की उत्पत्ति कभी कभी होती है वह होगी ही नहीं । कारण :- विशेषभान संशय ICT विरोधी है। शंका :- इन्द्रियसंनिकर्षजन्य विशेषभान के बाद होनेवाले सादृश्यमूलक एकत्वाध्यवसाय 15 के कारण संशयादि अनुभूति हो सकती है। उत्तर :- पहले ही यदि विशेषभान हो गया तो बाद में एकत्व के अध्यवसाय का संभव ही नहीं रहता । यह सर्वजन अनुभवगोचर है कि वस्तु दूरदेश में हो तब पहले उस का सामान्यबोध ही होता है, विशेषभान तो आगे बढने पर बाद में होता है । इसी लिये तो इन्द्रियजन्य मतिज्ञान में अपाय क्रमशः ही होते हैं भले उन में कालभेद कमल के शत पत्रों के वेध की घटना में क्रम प्रथमतः अपाय नहीं हो जाता किन्तु अवग्रह इहा 20 उपलक्षित न होता हो, वह मानना ही पडेगा, जैसे उपलक्षित न होने पर भी क्रम माना जाता है। [ सामान्य अबोधदशा में विशेषभान असंभव ] B प्रथम सामान्य बोध फिर विशेषबोध यह सर्व जनानुभवसिद्ध है इसी लिये मूल दूसरा विकल्प, अनुगताकार अज्ञात रहने पर विशेष का बोध, यह विकल्प स्वीकृतिपात्र नहीं है, क्योंकि जिस वस्तु 25 का अनुगताकार अज्ञात है उस के विशेषाकार का भान असम्भव है । यदि मूल-मध्य-अग्र भागों में ओतप्रोत स्थूल- एक सामान्याकार वस्तु के भान का अपलाप कर देंगे तो पृथक्-पृथक् उस वस्तु के परमाणु के अवबोध का अपलाप सुतरां हो कर रहेगा, इस स्थिति में विशेषावबोध ( जो स्वयं सिद्ध नहीं है) अपने विषय की स्थापना के द्वारा अन्य ( सामान्यबोध) का बोध कैसे करेगा ? 'एकत्वबोध तो मिथ्या है क्योंकि उस का विषय ( सामान्य ) विकल्पशाण के ऊपर खरा नहीं उतरता' 30 मत कहना क्योंकि यह भी आप का एक विकल्पमात्र ही है उस से प्रमाण को उलटाया नहीं जा सकता । अनुगतप्रतीति में अप्रामाण्य नहीं है क्योंकि अप्रामाण्य का वहाँ कोई प्रयोजक (बाध प्रतीति आदि या विसंवाद आदि) नहीं है । क्षणिक - अनेक - निरंश परमाणु के अवभास को अनुगतप्रतीति के अप्रामाण्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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