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________________ 10 खण्ड-३, गाथा-५ विज्ञानं जायते सर्व प्रत्यक्षमिति गम्यताम्। २३७ पूर्वार्धः । इत्यनेकदेश-कालावस्थासमन्वितं सामान्यम् द्रव्यादिकं च वस्तु अस्याः प्रमेयमित्यपूर्वप्रमेयसद्भावः । तदुक्तम्- [श्लो.वा.प्रत्यक्ष. २३२-२३३-२३४] गृहीतमपि गोत्वादि स्मृतिस्पृष्टं च यद्यपि। तथापि व्यतिरेकेण पूर्वबोधात् प्रतीयते ।। देशकालादिभेदेन तत्रास्त्यवसरो मितेः। यः पूर्वमवगतो ना(?)शः स च नाम प्रतीयते ।। इदानींतनमस्तित्वं न हि पूर्वधिया गतम्। इति । नन्वेवं भिन्नाभिन्नवस्तुविषयोऽनिब(?नुसन्धानप्रत्ययः प्राप्तः। इष्यत एवैतत्, यतो(न?)भिन्नत्वे न प्रत्यभिज्ञानम् अभिन्नत्वेऽपि न प्रमेयभेदः । प्रत्यभिज्ञाव्यपदेशोऽप्यस्य भेदाभेदालम्बनत्वमेव द्योतयति। यतो संनिकर्ष से जन्य होने के कारण इन्द्रियजन्य बुद्धि का, प्रत्यक्षरूप से व्यवहार सुविदित है। श्लोकवार्तिक ग्रन्थ में कहा गया है - ‘ऐसा कोई राजकीय (= राजाज्ञारूप) या लोकमान्य वचन नहीं है कि स्मृति के पूर्व होनेवाला (ज्ञान) प्रत्यक्ष नहीं होता।। स्मृति के बाद यदि (प्रत्यक्षजनक) इन्द्रिय प्रवृत्ति होती है तो कोई भी उस को रोक नहीं सकता। अतः प्रत्यक्ष उस काल में प्रदूषित (= दोषग्रस्त) नहीं है।। अतः स्मृति के पूर्व या पश्चाद् जो विज्ञान इन्द्रियार्थ सम्बन्ध से निपजता है वह सब ‘प्रत्यक्ष' जान लेना ।। [प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्ष का प्रमेय कौन ? ] 15 इससे फलित होता है कि प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्ष प्रमाण है जिस का प्रमेय है - अनेक देशों में, अनेक काल में, अनेक अवस्थाओं में अनुगत सामान्य एवं उस से विशिष्ट वस्तु। (उदा० देवदत्त द्रव्य एवं भिन्न भिन्न स्थलों में, बचपन आदि विविध काल में, एवं विविध बाल्यादि अवस्थाओं में 'यह वही देवदत्त है' इस प्रकार देवदत्तत्व सामान्य विषयक प्रत्यभिज्ञा होती है वह इन्द्रियसम्बन्ध जन्य होने से 'प्रत्यक्ष' है।) ऐसा नहीं है कि प्रत्यभिज्ञा सर्वथा पूर्वदृष्ट प्रमेय गोचर ही हो --- श्लोकवार्तिक 20 में कहा है - 'हालाँकि गोत्वादिसामान्य स्मृतिस्पृष्ट हो कर (पूर्व में) गृहीत रहता है, फिर भी पूर्वबोध (मैं जैसा दीखता था उस) से भिन्नरूपेण प्रतीत होता है।। देश-कालादि भेद से वहाँ (अपूर्वतया) प्रमिति अवसरप्राप्त है। पहले जिस अंश का (वृद्धत्वादि अवस्था आदि का) बोध नहीं हुआ था वह (अपूर्वतया) यहाँ प्रतीत होता है। आखिर, पूर्वबुद्धि में वर्तमानक्षणव्याप्त अस्तित्व का तो ग्रहण नहीं हुआ ।। (वह अभी गृहीत होने से अपूर्व प्रमेय का बोध प्रत्यभिज्ञा में सिद्ध होता है।) 25, [ प्रत्यभिज्ञा में भिन्नाभिन्नवस्तुविषयता का समर्थन ] शंका :- 'यह वही हैं' इस प्रकार पूर्वोत्तरकालीन दृष्ट पदार्थ के ऐक्य का अनुसन्धान करनेवाली प्रत्यभिज्ञा प्रतीति में भिन्नाभिन्न वस्तुविषयता प्रसक्त होगी। उत्तर :- वह तो हमें इष्ट ही है। अगर पूर्वोत्तरकालीन वस्तु सर्वथा भिन्न होती तो ऐक्यावगाही प्रत्यभिज्ञा का उद्भव ही नहीं होता। तथा, यदि वहाँ सर्वथा अभेद होता तो कालभेदप्रयुक्त प्रमेयभेद न होता। उस 30 प्रत्यक्ष की 'प्रत्यभिज्ञा' ऐसी संज्ञा भी यही सूचित करती है कि इस का विषय अकेला भेद या अकेला Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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