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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-१ अनुपलब्धेश्चात्राधिकार एवाऽसम्भवी प्रतिषेधसाधकत्वात्तस्याः, क्षणिकताविधिस्त्वत्र साध्यत्वेनाऽभिप्रेतः। न चापरो हेतु:* सौगतैरभ्युपगम्यते । नापि प्रत्यक्षानुमानव्यतिरिक्तं प्रमाणान्तरं तदभिप्रायेण विद्यत, इति कुतः क्षणिकतानिश्चय: ?
प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षास्व(?क्षाच्च) भावानां स्थैर्यप्रतिपत्तेः क्षणिकाभ्युपगमोऽसंमत एव । न च प्रत्यभिज्ञा 5 न प्रमाणम्
तत्र()पूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवर्जितम्।
अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसंमतम् ।। इति प्रामाण्यलक्षणयोगात्। प्रत्यक्षं च प्रत्यभिज्ञा आत्मेन्द्रियार्थसम्बन्धानुविधानतस्तदन्यप्रत्यक्षवत् सिद्धम्। न च स्मृतिपूर्वकत्वात् ‘स एवायम्' इत्यनुसन्धान(?)ज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वमयुक्तमिति वाच्यम्, ___ 10 सत्सम्प्रयोगजत्वेन स्मरणपश्चाभाविनोप्यक्षप्रत्ययस्य लोके प्रत्यक्षत्वेन प्रसिद्धत्वात्। उक्तं च– (श्लो.वा.प्रत्यक्ष.)
न हि स्मरणतो यत् प्राक तत् प्रत्यक्षमितीदृशम् ।।२३४।। वचनं राजकीयं वा लौकिकं नापि विद्यते। न चापि स्मरणात् पश्चादिन्द्रियस्य प्रवर्त्तनम् ।।२३५।। वार्यते केनचिन्नापि तत् तदानी प्रदुष्यति।
तेनेन्द्रियार्थसम्बन्धात् प्रागूर्ध्वं वापि यत् स्मृतेः ।।२३६।। ३-अनुपलब्धि हेतु का यहाँ क्षणिकतासिद्धि के लिये अधिकार ही संभवित नहीं है, क्योंकि वह तो निषेध(= अभाव) की साधक होती है, जब कि यहाँ विधिस्वरूप (= भावात्मक) क्षणिकत्व सिद्ध करना अभिलषित है। और किसी हेतु का तो बौद्धमत में स्वीकार ही नहीं है। उपरांत, बौद्ध मत में प्रत्यक्ष
अनुमान के सिवा अन्य किसी प्रमाण का भी स्वीकार नहीं है, तो क्षणिकता की सिद्धि यानी निश्चय किस ___ 20 प्रमाण से सिद्ध होगा ?
[प्रत्यभिज्ञा के प्रामाण्य और प्रत्यक्षत्व का समर्थन ] क्षणिकवाद का अंगीकार इस लिये भी असत् है, प्रत्यभिज्ञा संज्ञक प्रत्यक्ष से पदार्थों की स्थिरता यानी चिरकालस्थायिता सुज्ञात होती है। प्रत्यभिज्ञा को 'अप्रमाण' मत कहना, हेतुबिन्दुटीकादि विविध ग्रन्थों में कहा है – “प्रमाण की व्याख्या में, वह प्रमाण लोकमान्य होता है जिस में अपूर्व अर्थ का भान होता 25 हो, बाधमुक्त हो, निर्दोष कारणों से प्रादुर्भाव हुआ हो।” – इस प्रमाणलक्षण का अन्वय प्रत्यभिज्ञा में निर्बाध
है। ऐसा भी मत कहो कि प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्ष नहीं है। जैसे घटादिप्रत्यक्ष आत्मा, इन्दिय-अर्थ संनिकर्षजन्य होता है वैसे यह प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्ष भी सिद्ध है। ऐसा भी मत कहना कि – 'यह तो वही है' इस प्रकार से होने वाला पूर्वापर अनुसन्धानकारक ज्ञान तो पूर्वांश की स्मृति से गर्भित होने के कारण, प्रत्यभिज्ञा को ‘प्रत्यक्ष' मानना अनुचित है' - क्योंकि जानकार लोगों में, स्मृति गर्भित होने पर भी सत् पदार्थ के
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*. त्रिरूपाणि च त्रीण्येव लिङ्गानि ।।११ ।। अनुपलब्धिः स्वभावः कार्यं च (न्या.बि.द्वि.पं.पृ.२१) *. द्विविधं सम्यग्ज्ञानम् ।।२।। प्रत्यक्षमनुमानं च ।।३ ।। (न्या.बिप्र.प.पृ.५-६). हेतुबिन्दु-प्रमाणपरीक्षा - तत्त्वार्थश्लो.-प्रमेयक.मा.नयोपदेशादिग्रन्थेषु श्लोकोयमुद्धृतः।
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