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________________ खण्ड-३, गाथा-६ २३३ परेणोपलम्भात् । तन्न पूर्वापरयोरनुपलम्भमात्रादभावनिश्चय इति न प्रत्यक्षानुमानाभ्यां क्षणिकत्वावगमः । न चैतद्व्यतिरिक्तं प्रमाणान्तरं परैरभ्युपगम्यते इति कुतः क्षणिकत्वसिद्धिः ? ___यदपि 'यद् यथावभासते तत्तथैवाभ्युपगन्तव्यम् यथा नीलं नीलरूपतया प्रतिभासनं तेनैव रूपेणाभ्युपगमविषयः, क्षणपरिगतेन च रूपेण पदार्थाः प्रतिभान्तीति प्रत्यक्षसिद्धे क्षणिकत्वे तद्व्यवहार साधनाय हेतूपादानम्' इति परैः प्रतिपादितं तदप्ययुक्तम्, 'क्षणपरिगतेन रूपेण प्रतिभासनाद्' - इति 5 हेतोरसिद्धः कालान्तरस्थायितयाऽध्यक्षे भावानां प्रतिभासनस्य प्रतिपादितत्वात् । यदप्यभिहितम् ‘न प्रथमदर्शनेन कालान्तरस्थितिरवसातुं शक्या' तदप्यसङ्गतम्, स्थिररूपपदार्थदर्शनाद् आ विनाशकारणसंनिधानात् स्थायितया आद्यदर्शनेनैव भावस्य ग्रहणात् अन्यथैकक्षणस्थायितया तस्य ग्रहणे व्यवहारार्थमुपादानं न भवेत्। न च तत्क्षणप्रभवं वस्तु व्यवहारं साधयिष्यतीति तदुपादानम् एवंभूतप्रतिपत्तेर भावात्। न हि व्यवहारिण: 'इदमर्थक्रियाकारि वस्त्वन्यदेव' इति प्रतिपद्यन्ते। न च सन्ताननिबन्धनोऽयं व्यवहारः क्षणिकत्वाऽसिद्धौ 10 वस्तु का दर्शन हो सकता है या होता है। निष्कर्ष :- पूर्वोत्तर काल में अनुपलम्भ मात्र से भावक्षणानन्तर का निश्चय नहीं किया जा सकता। अतः प्रत्यक्ष या अनमान से क्षणिकत्व की सिद्धि अशक्य है। इन दो से अतिरिक्त कोई प्रमाण बौद्ध विद्वानों को मान्य नहीं है – अब क्षणिकत्व की सिद्धि कैसे करेंगे ? [क्षणिकताव्यवहारसाधनार्थ अनमान की सफलता दृष्कर 1 15 बौद्ध विद्वानों ने यह जो प्रतिपादन किया है – 'जो जैसा भासित होता है उस का वैसा ही स्वीकार होना चाहिये जैसे नीलरूपता से प्रतिभासमान नील उसी रूप से स्वीकारपात्र होता है। पदार्थवृन्द भी क्षणानबद्धरूप से भासता है अतः क्षणिकत्व तो प्रत्यक्षसिद्ध है, अनुमान हेतुप्रयोग तो उस के व्यवहार के उपपादन के लिये किया जाता है।' - यह प्रतिपादन अयुक्त है क्योंकि ‘पदार्थवृन्द क्षणानुबद्धरूप से भासता है' यह हेतु ही असिद्ध है। उलटा, पदार्थवृन्द तो प्रत्यक्ष में कालान्तरावस्थितरूप से भासित 20 होता है यह पहले दिखाया जा चुका है। तथा, यह जो कहा जाता है - प्रथमदर्शन से कालान्तरावस्थिति ज्ञात नहीं हो सकती - वह भी असंगत है, क्योंकि स्थिरस्वरूप पदार्थ दिखता है, विनाशकारणसंनिधानपर्यंत भाव की स्थायिता का ग्रहण आद्य दर्शन से ही हो जाता है, अगर ऐसा नहीं मानेंगे तो यानी सिर्फ एकक्षणस्थिति का ही दर्शन मानेंगे तो दूसरे क्षण में उस के न होने का निश्चय होने से उस के संबन्ध में क्रय-विक्रयादि व्यवहार के लिये कोइ उपक्रम ही करेगा नहीं। यदि कहें कि - व्यवहारार्थ उपक्रम 25 तो वह ऐसा समझ कर के करता है कि व्यवहारक्षण में (यह भाव तो नहीं रहेगा किन्तु) जो नया भाव पैदा होगा वह व्यवहार साधन करेगा - तो यह गलत है क्योंकि वर्तमानक्षणग्रहण अवसर में ऐसा तो कोई भान या विचार होता नहीं है। व्यवहारी लोक ऐसा अनुभव नहीं करते कि 'यह व्यवहारसाधक अर्थक्रियाकारी क्षण पूर्वक्षणवाले भाव से जुदा है।' व्यवहारउपक्रम को सन्तानमूलक मानना भी अयुक्त है, क्योंकि जब क्षणिकत्व ही असिद्ध है तो सन्तान कहाँ से सिद्ध होगा ? यदि कहें कि 'पूर्वदृष्ट भाव 30 के सम्बन्ध में ही ये क्रयादि हो रहे हैं - यह व्यवहार भ्रान्त है' – तो कहना पडेगा कि अब तक क्षणक्षय सिद्ध नहीं है तब उस व्यवहार में अतद् में तद् के भान रूप भ्रमत्व भी सिद्ध नहीं हो सकता। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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