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________________ खण्ड-३, गाथा-६ २१९ सेति वक्तव्यम् इतरेतराश्रयप्रसक्तेः । तथाहि - अर्थक्रियालक्षणा सत्ता क्षणिकतया व्याप्ता नित्यताविरोधात् सिध्यति, सोऽपि तस्याः क्षणिकतया व्याप्तेरिति परिस्फुटमितरेतराश्रयत्वम्। न चान्वयनिश्चयद्वारेण सत्त्व-क्षणक्षययोरविनाभावः सिध्यति प्रत्यक्षस्याऽन्वयग्राहित्वेनात्रप्रवृत्तेः। अनुमानादन्वयप्रतिपत्तावनवस्थाप्रसक्तेरिति प्रतिपादनात् (२१८-१०)। ___अथापि स्यात् - अर्थक्रियास्वरूपं सत्त्वं नित्यतायामसंभवि। अन्यथाभूतं च तन्न सम्भवतीति 5 क्षणक्षयिणः सर्वेऽपि भावाः। तथाहि- सत्तासम्बन्धः तावत् सत्त्वं नोपपद्यते व्यक्तिव्यतिरेकेण तस्या अनवभासनात् । न ह्यक्षान्वय-व्यतिरेकानुविधायिनी दर्शनोदये परिस्फुटप्रतिभासव्यक्तिस्वरूपव्यतिरेकेणाऽपरा वर्ण-संस्थानविरहिणी बहिर्लाह्याकारतां बिभ्राणा सत्ता प्रतिभाति तदवभासिन्या अक्षप्रभवसंविदोऽननुभवात् । न च सकलजनताविशदसंवेदनगोचरातिक्रान्ता सा समस्तीति शक्यमभिधातुम् अभावव्यवहारोच्छेदप्रसक्तेः । न च कल्पनाबुद्धिः ‘सत्... सत्...' इति सत्तास्वरूपमुल्लिखन्ती प्रतिभातीति तदवसेयत्वात् सत्ता सतीति 10 वक्तव्यम्, कल्पनाबुद्धावपि बहि:परिस्फुटव्यक्तिस्वरूपान्तर्नामोल्लेखाध्यवसायव्यतिरेकेण सत्तास्वरूपस्याऽप्रकाशनात्। तन्न कल्पनाबुद्ध्यध्यवसेयापि सत्तेति कथं सा सतीति ? सिद्ध होने पर नित्यता विरोध सिद्ध होगा। यहाँ अन्योन्याश्रय स्पष्ट है। उपरांत, सत्ता और क्षणिकता का अविनाभाव अन्वयग्रहण के द्वारा सिद्ध नहीं होता, क्योंकि दर्शन क्षणिकताग्राहित्वेन निश्चित न होने से 'जहाँ सत्ता है वहाँ क्षणिकता' इस प्रकार के अन्वय ग्रहण के लिये प्रत्यक्ष प्रवृत्ति असिद्ध 15 है। यदि अन्वयग्रहण अनुमान से मानेंगे, तो उस अनुमान के उत्थानार्थ जरूरी अन्वयग्रहण के लिये दूसरा अनुमान... उस के लिये तीसरा, इस प्रकार अनवस्था प्रसक्त होगी। पहले (२१९-१ कर आये हैं। [ सत्ता के स्वरूप की मीमांसा-पूर्वपक्ष ] दीर्घ पूर्वपक्ष का प्रारम्भ :- यदि ऐसा सोचा जाय - नित्य के होते हुए अर्थक्रियारूप सत्त्व 20 नहीं सम्भवता, नित्य या अनित्य के सिवा और कोई उस का स्वरूप नहीं है, अतः ‘सर्वं क्षणिकम्' स्वीकारना पड़ेगा। कैसे यह देखिये- सत्त्व की संगति सत्तासामान्य के सम्बन्ध से नहीं हो सकती, क्योंकि व्यक्ति से अलग किसी सामान्य का वहाँ उपलम्भ नहीं होता। इन्द्रिय के अन्वय-व्यतिरेक से अनुबद्ध दर्शन का उदय होने पर अतिस्पष्टव्यक्तिस्वरूपप्रतिभास से अतिरिक्त वर्णाकारशून्य, बाह्यरूप से ग्राह्याकारता धारण करनेवाली कोई सत्ताजाति भासित नहीं होती, क्योंकि सत्ताजातिअवबोधक 25 इन्द्रियजन्य संवेदन अनुभूत नहीं होता। ऐसा कहना कि – 'भले सत्ताजाति सकल जनसमूहसंवेदन विषयमर्यादा की बाहर है फिर भी है जरूर' - शक्य नहीं, क्योंकि तब तो समस्त काल्पनिक वस्तु के लिये ऐसा कथन शक्य होने से शशशृंगादि के अभाव-व्यवहार का ही विलोप प्रसक्त होगा। [कल्पनाबुद्धि से सत्ता की सिद्धि असम्भव ] शंका :- सत्ता जाति वास्तव है, क्योंकि 'सत् सत्' ऐसी सत्ता के स्वरूप को घोषित करती 30 हुयी कल्पनाबुद्धि उदित होती है उस से सत्ता ज्ञात होती है। उत्तर :- ऐसा नहीं बोलना। कारण :- कल्पनाबुद्धि में भी बाह्यरूप से स्पष्टतया व्यक्तिस्वरूपों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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