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________________ खण्ड-३, गाथा-६ २१३ तथाहि- न तावत् तदवभासिना ज्ञानेन तस्य जनकताऽवगन्तुं शक्या, तेन तत्स्वरूपस्यैव ग्रहणात् । जनकता तु तज्ज्ञानहेतुत्वम् न तत्तेन परिच्छेत्तुं शक्यम्। नापि तदवभासिना ज्ञानान्तरेण, तस्यापि तत्तुल्यत्वात्। अतत्प्रतिभासिनाप्यतद्ग्रहणस्वभावत्वात् न तज्जनकतापरिच्छेदः। तत्स्वरूपप्रतिभासे हि 'इदमस्मादुत्पन्नम्' इत्यवगन्तुं शक्यं नान्यथेति वक्तव्यम्, यतो देवदत्तावभासिनो ज्ञानस्य तद्देश-देवदत्तसंनिधेः प्रागभावमवगत्य तद्देशसंनिहितदेवदत्तावभासोदये तस्य तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वमवगतं तज्जन्यतां तस्य 5 व्यवस्थापयति, अन्वय-व्यतिरेकावगमनिबन्धनत्वात् तज्जन्यतावगतः। अथवा कार्यव्यतिरेकाच्चक्षुरादेरिव विषयस्यापि तज्जनकत्वमवसीयते केवलं चक्षुरादेर्विशिष्टज्ञानव्यतिरेकेण जनकत्वावधारणेऽपि स्वरूपाऽप्रतिभासादतीन्द्रियत्वम् विषयस्य पुनः कार्यव्यतिरेकादवगतस्य जनकत्वेन तत्स्वरूपावभासात् तदध्यक्षता। न हीन्द्रियज्ञानविषयत्वव्यतिरेकेणान्यत् प्रत्यक्षलक्षणमिति विषयस्य तज्जनकत्वे स्थिते वर्तमानताग्रहण एव तस्याऽक्षणिकत्वग्रह इति तेन तद्विरुद्धानुमानबाधा। 10 से ग्रहण शक्य नहीं। देखिये – पूर्वक्षणबोधक वर्तमानप्रत्यक्ष से उस की जनकता की पहिचान शक्य नहीं क्योंकि वर्तमानप्रत्यक्ष तो उस के नीलादिस्वरूप को ही ग्रहण करता है। जनकता का अर्थ है उस ज्ञान का हेतुत्व । जन्य ज्ञान उस को ग्रहण करने में सक्षम नहीं है। जन्य ज्ञान से भिन्न कोई ऐसा पूर्वक्षणवेदी ज्ञान नहीं है जो जन्यज्ञान के जनक पूर्वक्षण की जनकता को भाँप सके, क्योंकि वह भी जन्यज्ञान की तरह अक्षम है। पूर्वक्षण-अवेदी ज्ञान से भी जनकता का बोधन शक्य नहीं 15 क्योंकि उस का तथास्वभाव नहीं है कि वह उसका ग्रहण करे। पूर्वक्षण के जनकत्व स्वरूप को जो प्रकाशित कर सके वही ज्ञान ‘यह इस से उत्पन्न हुआ है' इस तथ्य का द्योतन कर सकता है अन्यथा नहीं। आपत्तिशमन :- उक्त आपादन कथनक्षम नहीं है। कारण :- अन्वय-व्यतिरेक से जनकता ज्ञान होता है। देवदत्त वस्तु का प्रदर्शक ज्ञान उस देशमें पहले देवदत्त नहीं था (तब उस का ज्ञान भी नहीं हुआ) जब वह उस देश में उपस्थित हुआ तब उस का ज्ञान उदित हुआ- इस प्रकार देवदत्त के अन्वय- 20 व्यतिरेक के अनुसरण को देवदत्तज्ञान ग्रहण कर लेता है अत एव स्व में देवदत्तजन्यता को निशि करता है। एक कार्य में अन्यजन्यता का बोध तो आखिर अन्वयव्यतिरेकबोधमूलक ही होता है। [अन्वय-व्यतिरेकसहकृत जनकत्वनिश्चय ] अथवा दूसरा उत्तर :- ज्ञानजनक चक्षु आदि में जैसे (उस के बिना रूपप्रत्यक्ष नहीं होता इस प्रकार के) कार्य व्यतिरेकमूलक जनकत्व का निश्चय होता है इस तरह ज्ञानजनक विषय में भी 25 व्यतिरेकमलक जनकत्व का निश्चय हो सकता है। फर्क है तो इतना कि चक्ष आदि (अतीन्द्रिय) में जनकत्व का निश्चय होने पर भी चक्षु के रूपादिमत्त्व स्वरूप का प्रतिभास न होने से उस को अतीन्द्रिय मानना पडेगा, जब कि कार्यव्यतिरेक के बल पर जनकत्वरूप से ज्ञात विषय का नीलादिमय स्वरूप भासित होता है अतः विषय को 'प्रत्यक्ष' माना जाता है। प्रत्यक्ष का इन्द्रियजन्यज्ञानविषयत्व के अलावा और तो कोई लक्षण नहीं है, इस तरह विषय में ज्ञानजनकत्व के निश्चय में आपादित शंका का 30 निवारण हो जाने से अब, ज्ञात ज्ञानजनकत्व के आधार पर वर्तमानताग्रहणमूलक क्षणद्वयस्थायित्व का निश्चय निष्कंटक बन गया। फलस्वरूप, इस प्रत्यक्ष से क्षणिकत्वग्राहि अनुमान बाधित हो गया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003803
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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